ब्रिटिश शासन के तहत जनजातीय लोगो कि आर्थिक स्थिति क्या थी ?
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भारत की कुल जनगणना में आदिवासी ८.६१% है,[1]। प्रजातीय आधार पर भारतीय कबीलों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम श्रेणी में मंगोलीय मूल के नागा, कूकी, गारो तथा असमी कबीले या अल्मोड़ा जिले के भोटिया आदि कबीले आते हैं। दूसरी श्रेणी के अंतर्गत मुंडा, संथाल, कोरवा आदि पुरा-ऑस्ट्रेलीय कबीले और तीसरी श्रेणी में विशुद्ध आर्य मूल के निचले हिमालयवासी खस कबीले या हिंद-आर्य-रक्त की प्रधानता लिए किंतु मिश्रित प्रकार के भील आदि कबीले रखे जा सकते हैं। भाषाशास्त्रीय दृष्टि से भारतीय कबीलों का वर्गीकरण तीन पृथक भाषापरिवार के समूहों में किया जा सकता है। ये समूह क्रमश: मुंडा, तिब्बती-बर्मी और द्रविड़ भाषापरिवारों के हैं। कुछ कबीले अपनी मूल बोली त्यागकर हिंदी बोलने लगे हैं। कुछ मुंडा कबीले इस श्रेणी में आते हैं। मूल रूप से मुंडा भाषापरिवार की बोली बोलनेवाले गुजरात के भीलों ने भी अपने अधिवासानुसार गुजराती या मराठी अपना ली है। निश्चित भौगोलिक सीमाओं में बसे इन कबीलों के अतिरिक्त नट, भाँटू, साँसी, करवाल और कंजर आदि ऐसे खानाबदोश कबीले हैं जो हाल तक अपराधोपजीवी थे किंतु जिन्हें कठोर नियंत्रण और कठिन नियमों से मुक्त कर दिया गया है। सभी श्रेणियों के इन कबीलों की कुल जनसंख्या लगभग तीन करोड़ है किंतु अनेक कबीलों के जातिनाम और जातिगत व्यवसाय अपना लिए हैं। इसीलिए हाल की जनगणना ने इनकी संख्या लगभग दो करोड़ ठहराई है। पुनर्वास की समस्या को ध्यान में रखते हुए सांस्कृतिक पदानुसार कबीलों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है :
(1) सांस्कृतिक दृष्टि से ग्राम्य व नगरसमूहों से दूर कबीले, अर्थात् वे जो प्राय: संपर्कविहीन हैं,
(2) नगरसंस्कृति से प्रभावित वे कबीले जिनमें संपर्कों के फलस्वरूप समस्याओं का बीजारोपण हुआ है और
(3) ग्राम्य तथा नगरसमूहों के संपर्क में आए वे कबीले जिनमें ऐसी समस्याएँ या तो उठी ही नहीं, अथवा सफल पर-संस्कृति-धरण (अकल्चरेशन) के कारण अब नहीं रहीं।
सांस्कृतिक संपर्कों के प्रसंग में भारतीय कबीलों को अनुकूलक (अडैप्टिव) और सात्मीकारक (ऐसीमिलेटेड), इन दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। अनुकूलक कबीले तीन प्रकार के हो सकते हैं-सहभोजी, समजीवी और पर-संस्कृति-धारक। सहभोजिता का अर्थ पड़ोसी समूहों के साथ समान आर्थिक कार्यों में भाग लेना है। समजीविता शब्द का प्रयोग कबीलों की आर्थिक और सांस्कृतिक आत्मनिर्भरता के अर्थ में किया गया है। पर-संस्कृति'धरण का तात्पर्य सांस्कृतिक लक्षणों की एकतरफा स्वीकृति से है, अर्थात् पर-संस्कृति-धारक कबीले वे हैं जो अपने सभ्य पड़ोसी समूहों के रीति रिवाज ग्रहण करते हैं। इस वर्गीकरण में उन कबीलों की गणना नहीं हुई जो बाह्य संस्कृतियों के संपर्क से अछूते छूट गए हैं। किंतु वास्तविकता यह है कि भारत में सांस्कृतिक संपर्कों का 'शून्य बिंदु' (ज़ीरो प्वाइंट) है ही नहीं। दूसरे शब्दों में, सभी कबीले अपने से अधिक उन्नत संस्कृतियों के संपर्क में आए हैं और परिणामस्वरूप या तो समस्याग्रसित हैं अथवा संपर्क स्थिति से समायोजन स्थापित कर अपेक्षाकृत संतोषप्रद जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
अधिकांश भारतीय कबीलों का निवास वनों में है और वे वन्य प्राकृतिक साधनों पर ही निर्भर करते हैं। कोचीन के कदार, त्रावणकोर के मलायांतरम्, मद्रास के पलियान और वायनाद के पनियन ऐसे ही कबीले हैं। कुछ कबीलों की अर्थव्यवस्था खाद्य पदार्थों की संचयन और पिछड़ी कृषि के बीच की है। इन कबीलों में प्रमुख मध्य प्रदेश के कमार और इसी राज्य में माँडला क्षेत्र के वैगा तथा दक्षिण में बिसन पहाड़ियों के रेड्डी हैं। उपर्युक्त दोनों श्रेणियों के कबीलों पर शासन की वन संबंधी नीतियों का गहरा प्रभाव पड़ता है। भारतीय कबीलों की तीसरी आर्थिक श्रेणी में देश की अधिकांश कबीली जनसंख्या को रखा जा सकता है। यह श्रेणी उन कबीलियों की है जिनके जीवकोपार्जन का मुख्य साधन कृषि है किंतु जिन्होंने वनों की निकटता के कारण संचयन व्यवसाय को दूसरे मुख्य धंधों के रूप में अपना लिया है। उत्तर-पूर्वी एवं मध्य भारत के प्राय: सभी कबीले इस श्रेणी में आते हैं।
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