ब्रह्मा यज्ञ कैसे करना चाहिए।
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ब्रह्म यज्ञ-भाग 1( संध्योपसाना) ब्रह्मयज्ञ किसे कहते हैं ? ॠषि दयानंद सरस्वती जी ने पंचमहायज्ञविधि में पांच यज्ञों की चर्चा की है। इन पांच यज्ञों (ब्रह्म यज्ञ, देव यज्ञ, पितृ यज्ञ, बलिवैश्वदेव यज्ञ, अतिथि यज्ञ) में प्रथम यज्ञ ब्रह्म यज्ञ है और इसके दो भाग हैं – संध्योपसना और स्वाध्याय ( मोक्ष शास्त्रों का अध्ययन)। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि यह यज्ञ सब से बड़ा यज्ञ है। इस यज्ञ को शब्दों की सीमा में नहीं बांधा जा सकता है। ब्रह्म नाम परमात्मा का है और हम परमात्मा के असीम गुणों को सीमित शब्दों में व्यक्त कर ही नहीं सकते हैं। परमात्मा सूक्ष्म है, उसका यज्ञ भी सूक्ष्म है।अन्य चार यज्ञों को स्थूल यज्ञ कह सकते हैं। स्थूल यज्ञ तो सामूहिक कर्म हो सकते हैं परंतु सूक्ष्म यज्ञ तो व्यक्तिगत करना होता है। यह यज्ञ ईश्वर में ध्यान लगाने की और उसकी स्तुति-प्रार्थना-उपासना करने की प्रक्रिया है, इस लिए यह यज्ञ मानसिक कर्म है और मन के द्वारा ही संभव है। ब्रह्मयज्ञ क्यों करें ? कई बार प्रश्न उठता है कि ब्रह्म यज्ञ क्यों करें? मनुष्य का स्वभाव है कि जिस काम में लाभ देखता है, जिससे उसका प्रयोजन सिद्ध होता है, उसे करता है। ब्रह्म यज्ञ के करने से परमात्मा से मनोवांछित सुख और पूर्णानन्द की प्राप्ति होती है। व्यवहारिक और पारमार्थिक कर्तव्य कर्मों की सिद्धि होती है। ईश्वर की स्तुति- प्रार्थना-उपासना के करने से परमेश्वर की कृपादृष्टि और सहायता से महा कठिन कार्य भी सुगमता से सिद्ध होते हैं। जन्म-जन्म के कुसंस्कारों के कारण और राग, द्वेष, मोह के विकारों के कारण चित्त भूमि बंजर सी हो जाती है, इसलिए उस में ज्ञान के बीज उग नहीं पाते और न ही उसमें कोई परिवर्तन आ पाता है। इस बंजर भूमि को हरा-भरा और उपजाऊ बनाने के लिए ब्रह्म यज्ञ के संस्कार खाद पानी का काम करते हैं। ब्रह्म यज्ञ से समाधि लगा सकते हैं।आत्मा का और ईश्वर का साक्षातकार समाधि में होता है। जैसे हम भोजन खाते हैं, उस से शरीर को उर्जा व शक्ति मिलती है। इसी तरह से आत्मा को शक्ति देने के लिए ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना आवश्यक है। ईश्वर से भी शक्ति मिलती है, यह आत्मा का भोजन है। जिस तरह थोड़ी सी औषधि भयंकर रोगों को शांत कर देती है, उसी तरह ईश्वर की स्तुति प्रार्थना उपासना बहुत से कष्ट और दुःख के समय मानसिक व आत्मिक बल प्रदान करती है। ब्रह्मयज्ञ कब करें? काल एवं स्थान की दृष्टि से ईश्वर हम से दूर नहीं है। ईश्वर का ध्यान कहीं भी और कभी भी किया जा सकता है परन्तु ब्रह्म वेला में वातावरण सात्विक और शान्त होता है। रात्रि की निद्रा, विश्राम के बाद शरीर में नई ऊर्जा व ताज़गी होने के कारण ईश्वर के ध्यान में मन लगाने में सरलता होती है। प्रतिदिन प्रात:और सांय ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना करनी चाहिए, रात के दस बजे शिव संकल्प मंत्रों के पाठ के साथ शयन और रात्रि के पिछले प्रहर अथवा चार बजे उठ के प्रथम हृदय में ईश्वर का चिन्तन करना चाहिए। प्रति क्षण ईश्वर की अनुभूति को बुद्धि में बनाए रखना होता है। ब्रह्म यज्ञ करने की पद्धति ? ऋषि दयानंद जी कृत वैदिक संध्या ध्यान लगाने की सर्व श्रेष्ठ पद्धति है। पूज्य स्वामी आत्मानंद जी महाराज ने संध्या के इन गूढ़ रहस्यों का उद्घाटन अष्टांग योग को आधार मानकर किया है। स्वामी जी संध्या अष्टांगयोग में लिखते हैं कि महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने हजारों वर्षों के पश्चात ईश्वर भक्ति के नाम पर भटक रही मानव जाति को प्रचीन वेद मार्ग पर लाने के लिए अनेक वैदिक ग्रंथों का मन्थन करने के अनन्तर उन्नीस मंत्रो की वैदिक संध्या का निर्माण ब्रह्म यज्ञ को सामने रखकर हम जैसे सामान्य जनों के लिए किया है। मन को स्थूल से सूक्ष्म की ओर लगाने में सुविधा होती है। शरीर स्थूल है, मन शरीर से सूक्ष्म है और ईश्वर मन से सूक्ष्म है। ध्यान लगाने की यही मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। संध्या ब्रह्म यज्ञ है। संध्या का अर्थ है ध्यान का उत्तम साधन। ध्यान ब्रह्म का ही किया जाता है। इस लिए संध्या को ब्रह्म की प्राप्ति का योग मार्ग भी कह सकते हैं ब्रह्म जैसे सर्वोत्तम तत्व की प्राप्ति के लिए ध्यान आरम्भ करने से पहले मनुष्य को सर्व प्रथम लक्ष्य का निर्धारण करना होता है।