History, asked by kamodkumarchaudhury, 1 day ago

बौद्ध धर्म और जैन धर्म बीच दो समानताएं और दो विसंगतियां बताइए?
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Answered by moksh7685
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Answer:

आर्य जाति की विविध शाखाओं ने भारत के विविध प्रदेशों में बस कर अनेक जनपदों का निर्माण किया था। शुरू में इनमें एक ही प्रकार का धर्म प्रचलित था। प्राचीन आर्य ईश्वर के रूप में एक सर्वोच्च शक्ति की पूजा किया करते थे। प्रकृति की भिन्न-भिन्न शक्तियों में ईश्वर के विभिन्न रूपों की कल्पना कर के देवताओं के रूप में उनकी भी उपासना करते थे। यज्ञ इन देवताओं की पूजा का क्रियात्मक रूप था। धीरे-धीरे यज्ञों का कर्मकाण्ड अधिकाधिक जटिल होता गया। याज्ञिक लोग विधि-विधानों और कर्मकाण्ड को ही स्वर्ग व मोक्ष की प्राप्ति का एकमात्र साधन समझने लगे। प्राचीन काल में यज्ञों का स्वरूप बहुत सरल था। बाद में पशुओं की बलि अग्निकुण्ड में दी जाने लगी। पशुओं की बलि पाकर अग्नि व अन्य देवता प्रसन्न व सन्तुष्ट होते हैं, और उससे मनुष्य स्वर्गलोक को प्राप्त कर सकता है, यह विश्वास प्रबल हो गया। इसके विरुद्ध अनेक विचारकों ने आवाज़ उठाई। यज्ञ एक ऐसी नौका के समान है, जो अदृढ़ है और जिस पर भरोसा नहीं किया जा सकता, यह विचार ज़ोर पकड़ने लगा। शूरसेन देश के सात्वत लोगों में जो भागवत-सम्प्रदाय महाभारत के समय से प्रचलित था, वह यज्ञों को विशेष महत्त्व नहीं देता था। वासुदेव कृष्ण इस मत के अन्यतम आचार्य थे। भागवत लोग वैदिक मर्यादाओं में विश्वास रखते थे, और यज्ञों को सर्वथा हेय नहीं मानते थे। पर याज्ञिक अनुष्ठानों का जो विकृत व जटिल रूप भारत के बहुसंख्यक जनपदों में प्रचलित था, उसके विरुद्ध अधिक उग्र आन्दोलनों का प्रारम्भ होना सर्वथा स्वाभाविक था। आर्यों में स्वतन्त्र विचार की प्रवृत्ति विद्यमान थी, और इसी का यह परिणाम हुआ कि छठी सदी ई० पू० में उत्तरी बिहार के गणराज्यों में अनेक ऐसे सुधारक उत्पन्न हुए, जिन्होंने यज्ञप्रधान वैदिक धर्म के विरुद्ध अधिक बल के साथ आन्दोलन किया, और धर्म का एक नया स्वरूप जनता के सम्मुख उपस्थित किया।

इन सुधारकों ने केवल याज्ञिक अनुष्ठानों के खिलाफ़ ही आवाज़ नहीं उठाई, अपितु वर्ण भेद का भी विरोध किया, जो छठी ई० पू० तक आर्यों में भली-भाँति विकसित हो गया था। आर्य-भिन्न जातियों के सम्पर्क में आने से आर्यों ने अपनी रक्तशुद्धता को कायम रखने के लिये जो अनेक व्यवस्थाएं की थीं, उनके कारण आर्य और दास (शूद्र) का भेद तो वैदिक युग से ही विद्यमान था। धीरे-धीरे आर्यों में भी वर्ण या जाति भेद का विकास हो गया था। याज्ञिक अनुष्ठानों के विशेषज्ञ होने के कारण ब्राह्मण लोग सर्वसाधारण ’आर्य विश:’ से अपने को ऊँचा समझने लगे थे। निरन्तर युद्धों में व्यापृत रहने के कारण क्षत्रिय सैनिकों का भी एक ऐसा वर्ग विकसित हो गया था, जो अपने को सर्वसाधारण जनता से पृथक समझता था। ब्राह्मण और क्षत्रिय न केवल अन्य आर्यों से ऊँचे माने जाते थे, अपितु उन दोनों में भी कौन अधिक ऊँचा है, इस सम्बन्ध में भी वे मतभेद रखते थे। इस दशा में छठी सदी ई० पू० के इन सुधारकों ने जातिभेद और सामाजिक ऊँच-नीच के विरुद्ध भी आवाज़ उठाई, और यह प्रतिपादित किया कि कोई भी व्यक्ति अपने गुणों व कर्मों के कारण ही ऊँचा व सम्मानयोग्य होता है, किसी कुल-विशेष में उत्पन्न होने के कारण नहीं।

यहाँ यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि उत्तरी बिहार के जिन राजगण्यों में इस धार्मिक सुधार का प्रारम्भ हुआ, उनके निवासियों में आर्यभिन्न जातियों के लोग बड़ी संख्या में विद्यमान थे। वहाँ के क्षत्रिय भी शुद्ध आर्य-रक्त के न होकर व्रात्य क्षत्रिय थे। सम्भवत: छठी सदी ई०पू० से पहले भी उनमें वैदिक मर्यादा का सर्वांश में पालन नहीं होता था। ज्ञातृक गण में उत्पन्न हुए वर्धमान महावीर ने जिस नये जैन धर्म का प्रारम्भ किया, उससे पूर्व भी इस धर्म के अनेक तीर्थंकर व आचार्य हो चुके थे। इन जैन तीर्थंकरों के धर्म में न याज्ञिक अनुष्ठानों का स्थान था, और न ही वेदों के प्रामाण्य का। वसु चैद्योपरिचर के समय में प्राच्य भारत में याज्ञिक कर्म-काण्ड के सम्बन्ध में स्वतन्त्र विचार की जो प्रवृत्ति शुरू हुई थी, शायद उसी के कारण उत्तरी बिहार के इस धर्म ने वैदिक मान्यताओं की सर्वथा उपेक्षा कर दी थी।

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