Badhti hui pradusn rokne ke lie sampadak ko patra
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-रवींद्र रंजन
परम आदरणीय संपादक महोदय, मैं आपके अखबार का पुराना पाठक हूं। उम्मीद है आप मुझे जानते होंगे। मैं पहले भी आपको कई पत्र लिख चुका हूं। हो सकता है वो आपको न मिले हों। मैंने अपनी कई रचनायें भी आपको प्रकाशनार्थ भेजी थीं, लेकिन पता नहीं क्यों वो प्रकाशित नहीं हुईं। जरूर वो आप जैसे विद्वान की आंखों के सामने से नहीं गुजर सकी होंगी। मैं बचपन से ही आपके समाचार पत्र का नियमित पाठक हूं। आपके अखबार में प्रकाशित सारी सामग्री बेहद खोजपरक, रोचक व तथ्यपूर्ण होती है। आपके द्वारा लिखे गये संपादकीय विचारपरक और 'निष्पक्ष' होते है, जो हमें 'बहुत कुछ' सोचने को मजबूर कर देते हैं।
हर रविवार को परिशिष्ट के प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित आपकी कविता तो अत्यंत उच्चकोटि की होती है। मेरा एक मित्र कहता है कि उसे समझ में ही नहीं आता कि आप अपनी कविता में कहना क्या चाहते हैं? इसमें भला उसका क्या दोष? 'बेचारे' की समझ 'छोटी' है। आपकी कवितायें कोई उसके जैसे कम समझ वालों के लिये थोड़े ही हैं। इसके लिये तो कोई आप जैसा बुद्धिजीवी ही होना चाहिये। मुझे तो पूरे हफ्ते आपकी इस साप्ताहिक कविता का इंतजार रहता है। मुझे आश्चर्य होता है कि आप 'इतनी अच्छी' कविता हर सप्ताह कैसे लिख लेते हैं। अन्य कवियों को आपसे अवश्य ही जलन होती होगी कि आपने अब तक हजारों कवितायें लिखी ही नहीं, बल्कि वो 'प्रकाशित' भी हुई हैं।...और हर रविवार को अखबार के प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित आपके संपादकीय का तो कोई जवाब ही नहीं है। इसके बीच-बीच में आप जो शेरो-शायरी करते हैं उससे तो संपादकीय पढ़ने का 'मजा' और भी बढ़ जाता है।