Hindi, asked by murugan124, 9 months ago

bal ram katha chapter 4 summary

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Answered by nilusohail1220
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Answer:

चौदह वर्षों तक राम को जंगल में निर्वासित कर दिया गया था। जब वह पहली बार लक्ष्मण और सीता के साथ जंगल में प्रवेश किया, तो उन्होंने भारद्वाजा मुनी से पूछा जहां उन्हें रहना चाहिए। मुनी ने उन्हें अपने आश्रम से करीब दस मील चित्रकूट जाने की सलाह दी।

जब राम चित्रकूट आए, तो राक्षस इस जगह पर शांतिपूर्ण माहौल खराब कर रहे थे। इसलिए उन्होंने वहां रहने के दौरान कई रक्षसों को मार डाला।

जब राम को निर्वासित किया गया तो राम के भाई भारत अयोध्या से दूर थे। जब भरत लौटे, तो उन्होंने सीखा कि उन्हें राम की अनुपस्थिति में राजा माना जाता था। इस खबर से काफी परेशान, भरत ने राम को वापस आने और राज्य पर शासन करने के लिए कहा था। आज, राम-भारत मिलाप उस स्थान की याद दिलाता है जहां वे मिले थे।

हालांकि राम के निर्वासन के बारे में भरत को खेद था, राम निर्विवाद थे। भरत ने बार-बार जोर दिया कि राम अयोध्या वापस आ जाएंगे, और कई अन्य लोग जो भारत के साथ आए थे, सहमत हुए। लेकिन राम ने बार-बार राज्य से इनकार कर दिया। "नहीं, मैंने अपने पिता से अपना वादा किया है। यह और भी महत्वपूर्ण है।"

अंत में, राम ने अपने ससुर जनक महाराजा को निर्णय दिया।

राम ने कहा, "जनक महाराजा बहुत अनुभवी, धार्मिक और विशेषज्ञ हैं, उन्हें यह तय करने दें कि क्या मुझे चित्रकूट में रहना चाहिए और निर्वासन की अवधि पूरी करनी चाहिए या अयोध्या वापस जाना चाहिए और राजशाही लेना चाहिए।"

भगवान के उद्देश्य को जानकर जनक महाराजा ने कहा कि राम को चित्रकुत में रहना चाहिए।

राम ने चित्रकूट में अपने चौदह वर्ष के निर्वासन के बारह वर्ष बिताए। फिर, अपने ही उद्देश्य के लिए, वह दंडकारण्या गए।

ᴀɴsᴡᴇʀ

Answered by mitalidas1234566
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Answer:

कोपभवन के घटनाक्रम की जानकारी बाहर किसी को नहीं थी। सारी रात राजा दशरथ कैकेयी को समझाते रहे, पर वह अपनी ज़िद पर अडी रही। राजा दशरथ उसे समझाते रहे। पूरे नगर में राज्याभिषेक की तैयारी हो रही थी। हर व्यक्ति शुभ घड़ी की प्रतीक्षा में था। महामंत्री सुमंत कुछ परेशान लग रहे थे। वे महर्षि के पास गए। उन्होंने बताया कि पिछली शाम से किसी ने महाराज दशरथ को नहीं देखा। महर्षि ने सुमंत को राजभवन भेजा। वहाँ उन्होंने देखा कि महाराज दशरथ पलंग पर पड़े हैं। कैकेयी ने कहा “मंत्रीवर महाराज बाहर निकलने से पहले राम से बात करना चाहते हैं। आप उन्हें बुला लाइए।” दशरथ ने बहुत ही क्षीणस्वर में राम को बुलाने की आज्ञा दी। सुमंत के मन में कई तरह की आशंकाएँ थीं।

राजमहल के बाहर काफ़ी भीड़ थी। भवन को खूब सजाया गया था। सुमंत राम के पास जाकर बोले-“राजकुमार, महाराज ने आपको बुलाया है। आप मेरे साथ चलें।” कुछ ही पल में राम-लक्ष्मण वहाँ पहुँच गए। राम समझ नहीं पा रहे थे कि महाराज ने उन्हें अचानक क्यों बुलाया है। सभी लोग समझ रहे थे कि राम राज्याभिषेक के लिए जा रहे हैं इसलिए लोग जय जयकार करने लगे। महल में पहुँचकर राम-लक्ष्मण ने माता-पिता को प्रणाम किया। राम को आया देखकर दशरथ बेसुध हो गए। उनके मुँह से हल्कीसी आवाज आई-‘राम’। आगे वे कुछ न बोल सके। राम ने कैकेयी से पूछा तो उसने बताया कि मैंने राजा दशरथ से अपने दो वरदान मांग लिए हैं-‘मैं चाहती हूँ कि राज्याभिषेक भरत का हो और तुम चौदह वर्ष के लिए वन में रहो। महाराज यही बात तुमसे नहीं कह पा रहे हैं।’ उन्होंने दृढ़ता से कहा ‘पिता का वचन अवश्य पूरा होगा, भरत को राजगद्दी दी जाए। मैं आज ही वन चला जाऊँगा। राम की बातें सुनकर रानी का चेहरा खिल उठा।

कैकेयी के महल से निकलकर राम सीधे अपनी माँ के पास गए। उन्होंने अपनी माता को कैकेयी भवन का विवरण दिया और अपना निर्णय भी बता दिया। यह सुनकर माता कौशल्या सुध-बुध खो बैठीं। लक्ष्मण क्रोध से भर गए, पर राम ने उन्हें शांत किया। राम ने लक्ष्मण से वन जाने की तैयारी करने को कहा। कौशल्या की इच्छा थी कि राम राजगद्दी भले ही छोड़ दें, पर अयोध्या में रहें। राम ने अपनी माता से बताया कि यह राजाज्ञा नहीं यह एक पिता की आज्ञा है। मैं उनकी आज्ञा का पालन करूँगा। आप मुझे आशीर्वाद दें। लक्ष्मण राम की बात से सहमत नहीं थे। वे चाहते थे कि राम अपने शक्तिबल से अयोध्या का राजसिंहासन छीन लें और गद्दी पर बैठ जाएँ। इससे असहमति प्रकट करते हुए राम ने कहा कि अधर्म का सिंहासन मुझे नहीं चाहिए। मेरे लिए तो जैसा राजसिंहासन है वैसा ही वनवास। कौशल्या भी राम के साथ वन जाना चाहती थी, किंतु राम ने उन्हें मना कर दिया और समझाया कि इस समय पिता को सहारे की आवश्यकता है। अंततः कौशल्या ने राम को गले लगाया और आशीर्वाद देते हुए कहा-‘जाओ पुत्र, दसो दिशाएँ तुम्हारे लिए मंगलकारी हों। मैं तुम्हारे लौटने तक इंतजार करूंगी।’

कौशल्या भवन से निकलकर राम सीता के पास गए। सारा हाल बताकर विदा माँगी। पर सीता ने कहा-‘मेरे पिता का आदेश है कि छाया की तरह हमेशा आपके साथ रहूँ।’ राम को सीता की बात माननी पड़ी। लक्ष्मण वहाँ आ गए। वह भी साथ चलने को तैयार थे। राम के वन जाने का समाचार पूरे शहर में तेजी से फैल गया। नगरवासी राजा दशरथ और कैकेयी को धिक्कार रहे थे। कुछ देर पहले तक वहाँ उत्सव की तैयारियाँ चल रही थीं अब उदासी ने घेर लिया। लोगों के आँखों में आँसू थे। सभी अयोध्यावासी रामसीता को वन जाने से रोकना चाहते थे। पर वे बेबस थे।

वन जाने की तैयारी होने लगी। राम-सीता और लक्ष्मण वन जाने से पहले पिता का आशीर्वाद लेने गए। राजा दशरथ बेसुध दर्द से कराह रहे थे। राम के प्रवेश करने पर दशरथ में जीवन का संचार हुआ। वे उठकर बैठ गए। वे बोले- “पुत्र, मेरी मति मारी गई है। मैं वचनबद्ध हूँ। ऐसा निर्णय करने के लिए मैं विवश हूँ। मुझे बंदी बना लो और राज सँभालो। यह राजसिंहासन तुम्हारा है। केवल तुम्हारा है। पिता के वचनों ने राम को झकझोर दिया। वे बोले मुझे राज्य का लोभ नहीं है। मैं ऐसा नहीं कर सकता। आप हमें आशीर्वाद देकर विदा करें। इसी बीच कैकेयी ने राम-लक्ष्मण और सीता को वल्कल वस्त्र दिए। तीनों ने तपस्वियों के वस्त्र पहन लिए और राजसी वस्त्र उतार कर रख दिए। सीता को तपस्वनी वस्त्र में देखकर वशिष्ठ मुनि को क्रोध आ गया। उन्होंने कहा कि-‘अगर सीता वन जाएगी तो अयोध्यावासी उनके साथ जाएँगे।’ राम सबका आशीर्वाद लेकर आगे बढ़े। आगे-आगे राम पीछे-पीछे सीता और उनके पीछे लक्ष्मण। महल के बाहर सुमंत रथ लेकर खड़े थे। नगरवासी रथ के पीछे-पीछे नंगे पाँव दौड़ रहे थे। रथ तेजगति से चला जा रहा था। राजा दशरथ उसी दिशा में नज़रें गड़ाए रहे। माता कौशल्या भी उनके पीछे गईं। बड़े-बूढ़े, बच्चे सबके आँखों में आँस थे। राम का यह दृश्य देखकर विचलित हो गए। तमसा नदी के तट पर पहुँचते-पहुँचते शाम हो गई। अगली सुबह दक्षिण दिशा की ओर चले। गोमती नदी पारकर राम-सीता और लक्ष्मण सई नदी के तट पर पहुंचे। यहीं अयोध्या राज्य की सीमा समाप्त होती थी। राम ने मुड़कर जन्मभूमि को प्रणाम किया। शाम होते-होते गंगा के किनारे पहुँच गए। शृंगवेरपुर गाँव में निषादराज गुह ने उनका स्वागत किया। राम ने वहीं रात्रि विश्राम किया। अगली सुबह राम ने महामंत्री सुमंत को वापस भेज दिया। सुमंत का खाली रथ देखकर नगरवासियों ने उन्हें घेर लिया। सुमंत बिना कुछ बोले राजभवन चले गए। उन्होंने राजा दशरथ को सारी स्थिति से अवगत करा दिया। दशरथ को उनकी बातों से संतोष नहीं हुआ। राजा दशरथ ने राम के वन-गमन के छठे दिन प्राण त्याग दिए। महर्षि वशिष्ठ ने मंत्रिपरिषद से चर्चा की और भरत को तत्काल अयोध्या बुलाने का निर्णय किया गया। अयोध्या की घटनाओं के बारे में मौन रहने का निर्देश दिया गया। भरत को अयोध्या की घटनाओं को बताए बिना तत्काल अयोध्या बुलाया गया।

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