balak to hui Chand Mai lalcaya se kya bhav vaykt hota hai
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आँगन में ठुनक रहा हैं जिदयाय है
बालक तो हई चाँद में ललचाया है
दर्पण उसे दे के कह रही हैं माँ
देख आईने में चाँद उतर आया है
आँगन में ठुनक रहा हैं जिदयाय हैबालक तो हई चाँद में ललचाया हैदर्पण उसे दे के कह रही हैं माँदेख आईने में चाँद उतर आया हैशब्दार्थ- दुनक-मचलना, बनावटी रोना। जिदयाया-जिद के कारण मचला हुआ। हड़-है ही। दयण-शीशा। आड़ना-दर्पण।
प्रसंग- प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में संकलित ‘रुबाइयाँ’ से उद्धृत है। इसके रचयिता उर्दू-फ़ारसी के प्रमुख शायर फिराक गोरखपुरी हैं। इस रुबाई में बाल-हठ का वर्णन किया गया है।
व्याख्या- शायर कहता है कि छोटा बच्चा आँगन में मचल रहा है। वह जिद लगाए हुए है कि उसे आकाश का चाँद चाहिए। उसका मन उस चाँद पर ललचा गया है। माँ उसे दर्पण में चाँद दिखाते हुए कहती है कि देख बेटा, दर्पण में चाँद उतर आया है। इस तरह वह बच्चे की जिद पूरी करती है।
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