Hindi, asked by thanushree37044, 6 months ago

‘बच्चों की बाल सुलभ हरकतें’ – इस विषय पर दो औरतों के बीच हुए संवाद को लगभग 50 शब्दों में लिखिए |

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Answered by SadiquaShamsheer
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Explanation:

आज दौड़ती भागती जिंदगी में मनुष्य रोज ही न जाने कितनी जद्दो जहद से रूबरू होता है। संचार क्रांति के इस युग में बच्चों पर ध्यान देने की फुर्सत शायद ही माता पिता को रह गई है। पैसा कमाने की अंधी होड़ में बच्चों का बचपन गुम हो रहा है। बच्चों की बाल सुलभ हरकतें भी संकीर्णता की ओर बढ़ती जा रही हैं। गली मोहल्ले, मैदानों में बच्चे अब कम ही खेलते दिखते हैं। गिल्ली डंडा, कंचे, पिट्ठू, डीपरेस (छुपा छुपऊअल), चोर सिपाही, अट्ठू जैसे घरेलू पारंपरिक खेल भी दिखाई नहीं देते हैं। दादी मॉ या नानी मॉ से कहानियां सुनने की फुर्सत बच्चों को नहीं रह गई है। पंचतंत्र, हितोपदेश की ज्ञानवर्धक कहानियां भी अब इतिहास में शामिल हो चुकी हैं। आधुनिकता के बीच सब कुछ बदल चुका है। गरीब बच्चों की दशा आज भी वैसी ही है जैसी कि आजादी के समय थी। गरीब गुरबों के बच्चों का बचपन तब भी अभावों में कटता था और आज की स्थिति में भी इसमें बदलाव की किरणें प्रस्फुटित नहीं हो पाई हैं।

ए छोटू दो चाय लाना, पप्पू पोहा देना, मुन्ना किराना निकाल दे, बंटी आलू तौलकर दे दे, बबलू गेहूॅ की बोरी गाड़ी मे रख देना . . . इस तरह की आवाजें सुनते सुनते दशकों बीत चुके हैं। इस तरह के नामों का उल्लेख इसलिए किया है क्योंकि ये नाम दशकों से सबसे ज्यादा उपयोग में आने वाले घरेलू नाम हैं। कमोबेश हर भारतीय इस तरह के नाम से रोज ही एक न एक बार दो चार होता ही होगा। जब भी घर से बाहर निकलिए इस तरह के नामों वाले नाबालिग बच्चों को आप दुकानो में काम करते आसानी से देख सकते हैं।

दुकानदारों के लिए भी ये बाल श्रमिक बहुत ही मुफीद इसलिए होते हैं, क्योंकि इनके माता पिता इनके भरोसे ही अपना घर चलाते हैं इसलिए ये कहीं भाग नही सकते, इसके अलावा ये कम दरों पर आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। ये धूम्रपान, तंबाखू जैसे व्यसनों से दूर रहते हैं इसलिए इसलिए दुकानदार इन पर भरोसा कर सकते हैं। इस तरह के बाल श्रमिक सुबह से रात ढलने तक मन लगाकर पूरी ईमानदारी के साथ काम करते हैं।

लगभग पांच साल पहले जब देश के हृदय प्रदेश के विदिशा (मूलतः भेलसा) के कैलाश सत्यार्थी को जबनोबल पुरूस्कार से नवाजा गया था तब बाल श्रम, बाल दासता के खिलाफ उनके द्वारा किए गए प्रयासों के चलते अससमय ही खोने वाला बचपन वैश्विक सुर्खियों में प्रमुखता पाने लगा था। इसी दौरान बाल वैश्यावृत्ति, बच्चों को अपाहिज बनाकर उनसे भीख मंगवाना (बाल भिक्षावृत्ति), बच्चों से जबरन मजदूरी करवाना, बच्चों को बंधुआ मजदूर के रूप में बंधक रखकर उनसे काम करवाना, उनके अंगों का प्रत्यारोपण आदि पर लोगों का ध्यान जमकर आकर्षित भी हुआ था।

2014 में कमलेश सत्यार्थी को नोबल पुरूस्कार से नवाजे जाने के बाद 2016 में बाल श्रम कानून में व्यापक संशोधन भी हुए। इन संशोधन का अगर गौर से अध्ययन किया जाए तो यह बात साफ हो जाती है कि इसमें 14 साल तक के बच्चों के लिए शिक्षा को अनिवार्य किया गया है। इसके साथ ही यह भी कहा गया है कि इस बात पर नजर रखी जाए कि 14 साल तक का बच्चा किसीभी सूरत में बालश्रम का शिकार न हो पाए। अगर किसी परिस्थिति में 14 साल से कम आयु का बच्चा अपने परिवार के किसी व्यवसाय में हाथ बटाता भी है तो इसके लिए यह अनिवार्यता रखी गई है कि उसको इस काम में शाला के समय में किसी भी कीमत पर न लगाया जाए। शाला के लगने के पहले या छूटने के उपरांत या अवकाश के समय वह इस काम को कर सकता है। कहने का तातपर्य यही है कि किसी भी कीमत पर उसकी शिक्षा का काम प्रभावित न हो पाए।

यक्ष प्रश्न आज यही खड़ा हुआ है कि इस तरह के कानून बना देने से क्या बच्चों के स्वास्थ्य, सुरक्षा, शिक्षा, स्वतंत्रता जैसी बुनियादी बातों को जमीनी हकीकत में बदल पाए है हुक्मरान! जाहिर है देश की स्थिति देखकर आपका उत्तर नकारात्मक ही होगा। देश में सरकारी शालाओं में नामांकन का प्रतिशत 94 है, जो राहत की बात मानी जा सकती है। क्या कभी किसी मंत्री, विधायक, सांसद ने अपने निर्वाचन क्षेत्र के ग्रामीण अचंलों की शालाओं में जाकर विद्यार्थियों की वास्तविक स्थिति को जानना चाहा है! सरकार की शिक्षा की पिछले साल की रिपोर्ट में साफ किया गया है कि आठवीं स्तर तक के विद्यार्थियों में महज 73 फीसदी विद्यार्थी ही हिन्दी या अंग्रेजी में उचित उच्चारण कर पाते हैं या शुद्धलेख लिख पाते है। कागजी आंकड़े चाहे जो भी बयां करें पर जमीनी हकीकत बहुत ही भयावह दिखाई दे रही है।

अनेक राज्यों में दस्तक अभियान चल रहा है। इस अभियान में कुपोषित बच्चों की तादाद का प्रतिशत ही अगर देख लिया जाए तो देश के नीति निर्धारिकों के होश उड़ सकते हैं। परिवार कल्याण एवं स्वास्थ्य विभाग के परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण में 21 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार पाए गए हैं। इसके अलावा 59 प्रतिशत बच्चे एनीमिक (खून की कमी से ग्रस्त) हैं। 18 फीसदी बच्चे कम वजन (अंडर वेट) के पैदा होते हैं। खून की कमी के कारण बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास पर क्या प्रभाव पड़ सकते हैं, इस बारे में चिकित्सक ही बेहतर बता सकते हैं, पर इससे बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास बाधित होता ही होगा। इसके अलावा कम वजन के बच्चों के पैदा होने पर उन्हें शुरूआती दौर में ही अनेक तरह की परेशानियों से भी दो चार होना ही पड़ता होगा। संपन्न परिवारों में तो इस तरह के बच्चों की देखरेख और चिकित्सकीय सहायता के जरिए उन्हे दुरूस्त कर लिया जाता होगा, पर गरीब गुरबों के बच्चे जो सरकारी अस्पतालों पर ही निर्भर रहते हैं उन पर क्या बीतती ह

Answered by ayushisahugkt123
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Answer:

सीता : नमस्ते

गीता : नमस्ते और कैसी है आप ?

सीता : मैं ठीक हूँ आप बताइए ।

गीता :मैं भी ठीक हूँ । आज कल आप नज़र नहीं आती क्या बात है ।

सीता : अरे बो करन यह है की बछ्हो की बजा से बयस्थ् रहती हूँ ये बच्चे बहुत परेशान करते है।

गीता : है ये तो है परेशान तो करते है परंतु इनकी बाल लिलये कुछ जयादा ही मजेदार होती है ।

सीता : हा मजेदार भी होती है परेशान भी कर देती है मज़ा तो आता है पर गुस्सा भी आता है ।

गीता : हा बो तो है पर घर मैं मन तो बहला रहता है अकेले क्या कमा होता है ।

सीता: हा ये बिल्क़ुल सही बात है । बहुत अच्छा लगता है जब इनकी अज़ीब अज़ीब हरकत देख्ति हूँ तो ।

गीता : हा चलिए अब मैं चलती हूँ मुझे देर हो रही है बाद मैं मिलते है ।

गीता : जी ।

आशा करती हू कि यह उत्तर आपको काम आयेगा

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