बच्चे कौन-कौन से दबाव झेलने पड़ते हैं
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एक इंसान की शख्सियत तराशने में बहुत से लोगों का हाथ होता है. जैसे उसके जीन, माता पिता, परिवार के दूसरे लोग, स्कूल, यार-दोस्त उसके आस पास के वो लोग जिनके साथ उसका उठना बैठना होता है. इसके अलावा और भी बहुत से कारण होते हैं जो किसी इंसान का किरदार तय करते हैं.
लेकिन, क्या आपको कभी ये ख़्याल आया कि आपका मिज़ाज जैसा आज लोग देख रहे हैं या खुद आप महसूस कर रहे हैं, वो हमेशा से ही ऐसा था? मसलन अगर आप आज शर्मीले हैं तो क्या आप हमेशा से ही ऐसे थे या अब हो गए हैं?
बहुत से रिसर्च ये साबित करते हैं कि हमारे बचपन की बहुत सी आदतें हमारे बड़े होने तक साथ रहती है. इस क्षेत्र में सबसे बेहतरीन तजुर्बा 1950 में अमरीका में हुआ था. स्टेला चेज़ औऱ अलेक्ज़ेंडर थॉमस दम्पति ने करीब 133 बच्चों पर रिसर्च की थी. इन बच्चों के पैदा होने से लेकर 30 साल की उम्र तक उनके बर्ताव, आदतों और हाव-भाव की निगरानी की गई. साथ ही उनके मां-बाप से भी सवाल जवाब किए गए.
इस रिसर्च के नतीजे में इन मनोवैज्ञानिकों ने तय किया कि नवजात बच्चों में नौ तरह की तबीयत देखी जा सकती है.
बच्चों के मूड कैसे रहते हैं? वो कैसे खेलते हैं?उनकी गतिविधियां क्या हैं? इन सवालों के जवाब इन्हीं नौ तरह के मिज़ाज में पाए जा सकते थे. फिर उनकी उम्र की बुनियाद पर उन्हें तीन हिस्सों में बांटा गया.
"इजी चिल्ड्रेन", यानी वो बच्चे जिन्हें संभालना आसान था. फिर "डिफीकल्ट चिल्ड्रेन" यानी जिन्हें संभालना बड़ी चुनौती थी. और "स्लो टू वार्म अप चिल्ड्रेन" जो किसी चीज़ को लेकर बहुत धीमी प्रतिक्रिया देते थे. सीखने में वक़्त लगाते थे.
अमरीका में हुए इस रिसर्च में पाया गया कि तीन साल के जिन बच्चों को डिफिकल्ट बच्चे कहा गया था, वो बड़े होने के शुरूआती दौर तक वैसे ही रहे. इन बच्चों के स्वभाव और शख्सियत में कोई तब्दीली नहीं आई थी.
जिन मनोविज्ञानिकों ने छोटे बच्चों के मिज़ाज और बड़े होने तक के किरदार का पर नज़र रखी उन्होंने पाया कि बपचन की आदतों की बुनियाद पर किसी के बड़े होने पर शख्सियत की भविष्यवाणी नही की जा सकती. हालांकि दोनों में थोड़ा सा रिश्ता ज़रूर रहता है.
मनोवैज्ञानिकों ने बच्चों के जिन किरदारों और मिज़ाज को शुरुआत में नौ हिस्सों में बांटा था. बाद के तजुर्बों में वो तीन ही रह गए. पहली श्रेणी है "एफर्टफुल कंट्रोल" जिसका मतलब है बच्चे में आत्म नियंत्रण का होना. यानी अगर बच्चे को कोई खिलौना देखकर लालच आता है तो वो खुद को रोक सकता. दूसरी श्रेणी है निगेटिव इफेक्टीविटी. इस तरह के बच्चों में डर और निराशा की भावना बढ़ जाती है. तीसरी श्रेणी होती है "एकस्ट्रावर्जन". इस कैटेगरी में आने वाले बच्चे मिलनसार होते हैं. किसी से भी आसानी से घुलमिल जाते हैं.
इसी साल रूस में हुए एक रिसर्च के नतीजे सामने आए हैं. इसमें 45 बच्चों के मां बाप ने अपने कुछ महीने के बच्चों से लेकर लगभग सात महीने के बच्चों के मिज़ाज की रेटिंग की. आठ साल बाद फिर से इन बच्चों के स्वभाव की पड़ताल की गई. पाया गया कि जो बच्चे कुछ महीने की उम्र में ज़्यादा हंसते-मुस्कुराते थे वो आठ साल की उम्र में भी जज़्बाती तौर पर ज़्यादा स्थिर होते हैं. हालांकि इस तजुर्बे में भी नवजात बच्चों के स्वभाव और उनके बड़े होने के बाद के बर्ताव में बहुत समानता नहीं देखने को मिली. मसलन, अगर बहुत बचपन में बच्चा ख़ुशमिज़ाज था, तो बड़े होकर उसकी ये ख़ूबी हर बार नहीं बरकरार रही. जबकि कुछ का यही मिज़ाज क़ायम रहा और आगे चलकर उस बच्चे की शख्सियत का हिस्सा बन गया.
यूरोपीय देश चेक रिपब्लिक में भी साल 2007 में बच्चों के बर्ताव और इंसान के किरदार के बीच रिश्ता तलाशने का रिसर्च हुआ. मनोवैज्ञानिकों ने इसके लिए बारह से तीस महीने के बच्चों पर रिसर्च की. इन्हीं बच्चों को 40 बरस की उम्र में फिर से परखा गया. इस सभी की शख्सियत के बहुत से पहलू सामने आए. जो लोग बचपन में ज़्यादा सक्रिय और बोलने वाले थे, बड़़े होने पर वो आत्मविश्वास से लबरेज़ पाए गए.
इन तमाम तजुर्बों से एक बात साफ़ है. कुछ महीनों के बच्चों के स्वभाव को देखकर हम अंदाज़ा लगा सकते हैं कि आगे चलकर उसकी शख़्सियत कैसी होगी. ऐसा हर बार होगा ये ज़रूरी नहीं, लेकिन हमारे किरदरा की बुनियाद हमारी ज़िंदगी के शुरुआती महीनों में ही पड़ जाती है. ऐसे में मां-बाप को अपने बच्चों के बर्ताव में कुछ कमी लगती है तो वो अपने नवजात बच्चों को ही कुछ चीज़ें सिखाकर उनके अच्छे किरदार की बुनियाद डाल सकते हैं.
ऐसा नवजात बच्चों से लेकर तीन साल की उम्र तक के बच्चों के साथ किया जा सकता है. इस दौरान ही उसके मिज़ाज और अच्छे किरदार के बीज उसके दिल-दिमाग़ में बोए जा सकते हैं.