बचपन से जुड़ी घटना का कर वर्णन करे
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बचपन के दिन किसी भी व्यक्ति के जीवन के बड़े महत्वपूर्ण दिन होते हैं । बचपन में सभी व्यक्ति चिंतामुक्त जीवन जीते हैं । खेलने उछलने-कूदने, खाने-पीने में बड़ा आनंद आता है ।
माता-पिता, दादा-दादी तथा अन्य बड़े लोगों का प्यार और दुलार बड़ा अच्छा लगता हैं । हमउम्र बच्चों के साथ खेलना-कूदना परिवार के लोगों के साथ घूमना-फिरना बस ये ही प्रमुख काम होते हैं । सचमुच बचपन के दिन बड़े प्यारे और मनोरंजक होते हैं ।
मुझे अपने बाल्यकाल की बहुत-सी बातें याद हैं । इनमें से कुछ यादें प्रिय तो कुछ अप्रिय हैं । मेरे बचपन का अधिकतर समय गाँव में बीता है । गाँव की पाठशाला में बस एक ही शिक्षक थे । वे पाठ याद न होने पर बच्चों को कई तरह से दंड देते थे ।
मुझे भी उन्होंने एक दिन कक्षा में आधे घंटे तक एक पाँव पर खड़ा रहने का दंड दिया था । इस समय मुझे रोना आ रहा था जबकि मेरे कई साथी मुझे देखकर बार-बार हँस रहे थे । मैं बचपन में कई तरह की शरारतें किया करता था ।
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मैं एक भरे-पूरे संयुक्त परिवार में अपने माता-पिता की नौवीं संतान थी. सबसे बड़ी दो बहनें फिर छह भाई और फिर मैं. सबसे छोटे भाई और मुझमें छह साल का अंतर था और इसलिए मैं सबकी लाडली थी. खासतौर पर पिताजी की, उन्हें हम दादा कहते थे. दादा की गोद में बैठना मेरा जन्मसिद्ध अधिकार था. मैं घर का सबसे छोटा बच्चा थी सो मेरे लिए इसके अपने फायदे और नुकसान थे. एक तरफ जहां मुझे कोई डांटता-फटकारता नहीं था वहीं दूसरी तरफ मेरे साथ खेलने और शैतानी करने वाला भी कोई नहीं था. छोटी होने और अकेली पड़ जाने के कारण मेरी शरारतों के कोटे में बहुत कम शरारतें हैं. यह कह सकते हैं कि घर के बड़ों को देख-देखकर मैं बचपन में ही अपनी उमर से बड़ी होने की भाव-भंगिमा में रहती थी इसलिए बेतरह शरारतें करने के मौके ज्यादा आए नहीं.आज जिस उम्र में हूं तो नजर धुंधलाने के साथ-साथ अब तो उस दौर की यादें भी धुंधली पड़ गई हैं. बचपन की जो आखिरी याद अब भी मुझे है वो सन 1960-61 की बात होगी. तब मेरी उम्र 7-8 साल की रही होगी. मेरी बहनें मुझसे बहुत बड़ी थीं. सगे भाइयों के अलावा दो चचेरे भाई भी साथ में रहते थे.चाची जल्दी गुजर गई थीं तो उनका लालन पालन मेरी मां ने ही किया था. उम्र में वे भी मेरे भाइयों के बराबरी के ही थे, यानी मुझ से काफी बड़े थे. दादा के बाद मैं सबसे ज्यादा अपने भाइयों की लाडली थी. उनकी राजनीतिक चर्चाएं सुनते और शतरंज की चालें (इस दौरान उनकी हरकतें-बातें) देखते-देखते मेरे दिन बीता करते थे. भाइयों के साथ उठने-बैठने के कारण मेरा व्यवहार, चलना फिरना, बोलने का लहजा, सब कुछ लड़कों जैसा होने लगा था. कह सकते हैं कि मैं फ्रॉक पहनने वाला लड़का थी.मैं देखती रहती थी कि मां, बड़ी भाभी और दोनों बहनें घर के कामकाज में जुटी रहती थीं. इतना ही नहीं वे हर समय दादा और भाइयों की खिदमत में भी हाजिर रहतीं. आज से आधी सदी पहले तब की परम्पराओं के मुताबिक ही भाइयों का पुरुषोचित व्यवहार हुआ करता था. ऐसा तब भी होता था जब भाई बहनों से छोटे थे पर वे बहनों और भाभियों पर हुकुम ही चलाते थे. कहते हैं न कि बच्चे अनुसरण बहुत जल्दी करते हैं. भाइयों के साथ रहते मैं भी कुछ हरकतें सीख गई थीं, बस आयु के हिसाब से उनका अनुपात कम था.