बढता आतंकवाद एक चुनौती पर निबंध
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पेशावर में एक स्कूल पर हुए आतंकी हमले ने दुनिया को हिला दिया है। पाकिस्तान इस शोक से उबरने की कोशिश कर रहा है और इसी के साथ आतंकवाद का विषय एक बार फिर दुनिया के समक्ष बड़ी गंभीरता से सामने आ गया है। आतंकवाद का प्रश्न नया नहीं है। वास्तव में यह बहुत पहले से ही इस्तेमाल किया गया है। यह अलग बात है कि आतंकवाद को परिभाषित करने का यह कठिन समय है। आतंकवाद अब बेहद सूक्ष्म रूप में सामने आ रहा है तथा इतने शिल्प व कौशल उसने विकसित कर लिए हैं कि उसे समझने के लिए बौद्धिकता व संवेदनशीलता को नए रूप और आकार देने होंगे। आतंकवाद एक राजनीति है। उससे अपराध, उत्पीड़न जैसे शब्द स्वत: जुड़े हैं। यह एक चरमपंथ है-अपनी प्रकृति में गोपनीयता बरतने वाला और्र ंहसा का आग्रही। आतंकवाद का इरादा स्पष्ट रूप से यह होता है कि दूसरों को मजबूर किया जाए। राजनीतिक, धार्मिक या वैचारिक लक्ष्यों की खोज में सरकारों, समाजों, समूहों या व्यक्तियों को भयभीत किया जाएर्। ंहसा, भय और धमकी, इन तीन तत्वों से आतंकवाद का आधार बनता है। आतंकवादी स्थानीय जनता, सरकार और दुनिया का ध्यान खींचने के लिए आपराधिक कृत्य करते हैं। प्रचार पाने की आतंकवादियों ने कला विकसित कर ली है तथा उसके लिए वे क्रूर से क्रूर कार्य कर सकते हैं और करते हैं, जैसा कि उन्होंने पेशावर के आर्मी स्कूल में सौ से अधिक बच्चों की जान लेकर किया। बच्चों, स्त्रियों, बूढ़ों, असहायों, निर्बलों का हनन उनके लिए सामान्य बात है। वित्तीय आतंकवाद, साइबर आतंकवाद, मनोवैज्ञानिक आतंकवाद आदि इसके कई रूप हैं। आतंकवादी अपने को बुराई के रूप में नहीं देखते। उल्टे, आम आदमी की निगाह में जो आतंकवादी होता है वह अपने समूह में अपने को स्वतंत्रता सेनानी बताता है।
आतंकवाद के सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य को समझना बहुत जरूरी है, क्योंकि सांस्कृतिक पक्ष उसका बड़ा आधार है। एक वर्ग के रूप में संस्कृति का विश्लेषण एक आसान कार्य नहीं। आतंकवादी कैसे सोचते हैं, उनकी जीवन प्रणाली क्या है तथा दूसरी संस्कृतियों के प्रति उनके विचार क्या हैं, इससे तय हो जाता है कि आतंकवादी मूलत: चरमपंथी हैं। अमूमन देखा गया है कि उनका दूसरी संस्कृतियों के प्रति सकारात्मक भाव नहीं होता तथा वे बहुलतावादी भी नहीं होते। वे सोचते हैं कि जिनमें उनका विश्वास है वही एकमात्र सच है या होना चाहिए। वे स्वयं तो असहमति रखेंगे, किंतु उनसे असहमति रखना घातक होगा। 21वीं सदी के आतंकवाद का सांस्कृतिक आयाम धर्म के जकड़े स्वरूप में पाया जा सकता है। संस्कृतियों के बीच मतभेद में वृद्धि से आतंकवाद के विकास की संभावना बढ़ रही है। 11 सितंबर की घटना के मूल में धार्मिक और सांस्कृतिक तनाव देखे जा सकते हैं। इसी आधार पर मुंबई की घटना या बोधगया की घटना को भी समझा जा सकता है।
कभी दो धमार्ें के बीच टकराव नहीं होता। दो धमार्ें के बीच जड़ता ही संघर्ष का कारण बन सकती है। आतंकवादी सांस्कृतिक हताशा के शिकार होते हैं। वे व्यक्ति की स्वतंत्रता, उदारता, मानवाधिकार, समानता, लोकतंत्र, मुक्त बाजार आदि पर विरोधी दृष्टि रखते हैं। वे शिक्षा का इस्तेमाल भी अपने चरमपंथ के पक्ष में कर सकते हैं। स्कूल, कालेज, या प्रशिक्षण शिविरों में भी वे घृणा र्व ंहसा को ही आधार बनाएंगे। उनकी ओर से एक गलतफहमी सी बनाई गई है कि अमुक धर्म या संस्कृति हमारी विरोधी है। संस्कृतियों के बीच सहचर भाव विकसित करने के बजाय उनमें गलतफहमी पैदा की जाती है। संस्कृतियों के बीच दूरियां बढ़ाई जाती हैं तथा इसमें अज्ञान की बड़ी भूमिका होती है। इसीलिए कई लोग इसे सभ्यताओं के टकराव के रूप में देखते हैं। आतंकवाद का अर्थ है विविधता को नष्ट करना। सांस्कृतिक केंद्रों, धार्मिक स्थलों पर हमला इसी मानसिकता की उपज होता है। वाराणसी में मंदिर में कुछ साल पहले बम विस्फोट सांस्कृतिक रूप से भी दहशत फैलाने का एक रूप था। इसलिए संस्कृति के विविध रूपों के प्रति असहिष्णुता रखना आतंकवाद का मुख्य वैचारिक आधार है।
आतंकवाद को नष्ट करने के लिए दूसरों की विविधता का सम्मान करना सिखाना व सीखना होगा। इस समय दुनिया बहुआयामी संकट से गुजर रही है। एक-दूसरे पर भरोसा कम हो रहा है। राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय समस्याएं बढ़ती जा रही हैं। उनका समाधान संभव है। राजनीति को लोकोन्मुखी बनाना आवश्यक है। राजनीति को वृहत्तर परिपेक्ष्य में लेना होगा। वह सभ्यता के आचरण के रूप में ली जानी चाहिए, न कि मात्र गलाकाट प्रतिस्पर्धा के रूप में। यदि पूरी दुनिया की राजनीति को एक सकारात्मक आचरण के रूप में तथा उसे विकास व संवेदना का साधन बना दें तो दुनिया की समस्याएं कम हो सकती हैं तथा आतंकवाद कम हो सकता है। आतंकवाद इस बात का प्रतीक है कि एक-दूसरे पर भरोसा कम हो रहा है। एक-दूसरे के प्रति प्रेम कम हो रहा है। अपने समाज की पारंपरिक वैज्ञानिक दृष्टि को भी जागृत करना होगा, जिसमें केवल भावनाओं के बल पर नहीं, बल्कि तर्क और ठोस भौतिक यथार्थ को भी सामने रखना होगा।प्रत्येक समुदाय दूसरे समुदाय का ख्याल रखे और यह माने कि इस दुनिया में सबको रहने व जीने का हक है। यदि कहीं कोई समस्या या गलतफहमी भी है तो उसे बैठकर बातचीत से हल किया जा सकता है। संवाद से किस समस्या का समाधान संभव नहीं। धर्म सबको जोड़ने के लिए है, तोड़ने के लिए नहीं। संस्कृति सबका सम्मान करना सिखाती है। वह एक सम्यक आचरण भी है। इसलिए विश्व की समस्त संस्कृतियां व सभ्यताएं एक-दूसरे के लिए हों, न कि एक-दूसरे के विरुद्ध। उच्च नैतिक मापदंड तो होने चाहिए। विभिन्न देशों को चाहिए कि वे अपनी धरती का इस्तेमाल मानवता विरोधी कायरें के लिए न होने दें।
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