भाग्य का निर्माण स्वयं करते हैं। केवल आलसी अपने भाग्य को कोसते हैं।
पुरुषार्थी आलस्यरहित रहना ठीक समझता है। साधारणतया जिसे हम भाग्य या प्रारब्ध कहते हैं, वह हमारे पूर्व संचित कर्म ही
होते हैं। श्रेष्ठ पुरुष दौड़ लगाते हैं, आगे चलते हैं, उनके पीछे और लोग चलते हैं। जो दौड़ता है उसे लक्ष्य मिलने की संभावना
अधिक होती है। महाराज भर्तृहरि ने मनुष्यों को तीन श्रेणियों में बाँट दिया था-अधम, मध्यम और उत्तम। अधम क्लेश के डर
से कोई काम प्रारंभ नहीं करते। मध्यम लोग कार्य प्रारंभ तो कर देते हैं, परंतु कोई विघ्न पड़ने पर दु:खी होकर बीच में ही
छोड़ देते हैं। परंतु उत्तम लोग बार-बार कष्ट, विघ्न आने पर भी प्रारंभ किए गए काम को नहीं छोड़ते वरन् उसे पूरा करके
ही दम लेते हैं। ऐसे लोग पुरुषार्थी कहलाते हैं। उपनिषद् कहते हैं।-चरैवेति-चरैवेति अर्थात् चलते रहो, चलते रहो। जो हमारा
समय निकल गया उसकी चिंता छोड़ें। जो जीवन शेष बचा है, उसके बारे में विचार करें।
प्रश्न- 1. अपने भाग्य का निर्माण कौन करता है?
(क) आलसी व्यक्ति
(ख) भाग्य के भरोसे रहने वाला
(ग) पुरुषार्थी
(घ) अपने भाग्य को कोसने वाला
2. भाग्य या प्रारब्ध कौन-से कर्म होते हैं?
(क) जो कर्म हम आजकल कर रहे हैं।
(ख) जो हमारे पूर्व-संचित कर्म होते हैं।
(ग) ऐसे कर्म जो हम भविष्य में करेंगे।
(घ) भाग्य या प्रारब्ध का संबंध किसी भी कर्म से नहीं होता।
3. जीवन किसका श्रेष्ठ है?
(क) आलसी व्यक्ति का
(ख) पुरुषार्थी व्यक्ति का
(ग) स्वयं को कोसने वाले का
(घ) हमेशा दूसरों को कोसने वाले का।
4. भर्तृहरि के अनुसार मध्यम श्रेणी के लोग कैसे होते हैं?
(क) क्लेश के डर से कोई काम प्रारंभ नहीं करते।
(ख) कार्य को पूरा करके ही दम लेते हैं। विघ्न आने पर कार्य छोड़ते नहीं।
(ग) हाथ पर हाथ रखकर भाग्य भरोसे रहते हैं।
(घ) कार्य प्रारंभ तो कर देते हैं, परंतु विघ्न आने पर बीच में छोड़ देते हैं।
5. 'चरैवेति-चरैवेति अर्थात् चलते रहो, चलते रहो' यह प्रसिद्ध बात किसमें लिखी है।
(ख) गीता
(
(घ) रामायण
भारतेंट के जीवन का उद्देश्य अपने देश की उन्नति के मार्ग को साफ सुथरा और लंबा-चौड़ा बनाना था। उन्ह
(क) वेद
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1) ग पुरुषार्थी
2) ख जो हमारे पूर्व संचित कर्म होते हैं
3) ख पुरुषार्थी व्यक्ति का
4) घ कार्य प्रारंभ तो कर देते हैं, परंतु विघ्न आने पर बीच में छोड़ देते हैं
5) उपनिषद
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