भेज पहचानो तुम सब मेरे लिए परेशान हो रहे हो मैं जानता हूं
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(सुल्तान ने बीस साल पहले जिस महल के बनाने का हुक्म दिया था, वह बनकर तैयार हो गया है। अब यही काम बाक़ी रह गया है कि महल के बाहरी दरवाज़े पर सुल्तान का नाम लिख दिया जाये। अगले दिन सुल्तान महल देखने वाले हैं।
मंच पर कुछ मज़दूर काम कर रहे हैं। दरोग़ा अपना कोड़ा लिए इधर-उधर टहल रहा है और मज़दूरों को हिदायतें दे रहा है।)
दरोग़ा : (काम करते कीरीगरों से) बस, अब एक आख़िरी काम यह बचा है कि इस महल के दरवाज़े पर सुल्तान का नाम लिख जाना है। (ठहरकर) चलो शुरू करो। नाम इतने बड़े और साफ़ हुरूफ़ में होना चाहिए कि दूर से ही नज़र आये। (ठहरकर) शाम होते-होते यह काम भी ख़त्म हो जाना चाहिए क्योंकि सुबह सुल्तान महल देखने आयेंगे। इनाम-इकराम से तुम लोगों को लाद दिया जायेगा।
(फसी आता है।)
दरोग़ा : (फसी से) जिन पत्थरों को तुम और इन्ना घिस रहे थे वे चमक गये?
फसी : जी सरकार।
दरोग़ा : मैं तुम लोगों के काम से ख़ुश हूँ। इसीलिए तुम लोग ज़िंदा भी हो। तुम लोगों ने देखा ही है कि जिन गु़लामों ने कोताही की उनका क्या हश्र हुआ। (हंसकर) ज़िंदगी से छुट्टी पा गये। (ठहरकर) मैं तो बस काम पूरा हुआ देखना चाहता हूँ।
फसी : आप हुक्म दें और हम लोग उसे पूरा न करें, ये कैसे हो सकता है सरकार। (ठहरकर) हुज़ूर, आपके बहुत एहसानात हैं हमारे ऊपर। अगर समरक़न्द के बाज़ार से आपने मुझे और इन्ना को न ख़रीदा होता तो पता नहीं आज हम कहाँ होते।
दरोग़ा : ज़रूर तुम लोगों को वे समुन्दरी डाकू ख़रीद लेते जो तुम दोनों का दाम सिर्फ़ दस दीनार लगा रहे थे। (ठहरकर) सालों हो गये लेकिन मुझे अच्छी तरह याद है। कैसी झूलसा देने वाली गर्मी थी और महीनों पैदल चलते हुए हम लोग यहां पहुंचे थे। (दरवाज़े के ऊपर बादशाह का नाम लिखने वाले कारीगरों से) जल्दी करो जल्दी, सूरज डूबने वाला है। सबसे पहले सुल्तान की नज़र दरवाज़े पर ही पड़ेगी। (फसी से) फसी, मैंने अपनी ज़िन्दगी में सुल्तान के लिए हज़ारों गु़लाम ख़रीदे हैं। लेकिन आज तक मुझे इन्ना जैसा गु़लाम नहीं मिला। हर काम को इतने सलीक़े से करता है कि उसकी पीठ पर पड़ने के लिए मेरा कोड़ा तरस गया।
फसी : हां हुजू़र, मैं उसके साथ इतने साल से रह रहा हूं। (ठहरकर) मैंने उसे हमेशा हर आदमी के लिए सब कुछ कर देने को तैयार पाया है। उसने बीसियों बार मुझे अपना खाना खिलाया है। अगर उसका साथ न होता तो मैं मर ही गया होता। (ठहरकर) रात गए तक उन घोड़ों को पानी पिलाता रहता है जो समरक़न्द और बुख़ारा से पत्थरों की गाड़ियां खींचकर लाते हैं। मैंने उससे कई बार कहा कि घोड़ों को पानी पिलाने के लिए दूसरे ग़ुलाम हैं। लेकिन वह मेरी बात ही नहीं सुनता। हर काम ख़ुद...
(पीछे संगीत की आवाज़ आती है। फसी रुक जाता है। कुछ क्षण रुकता है फिर दरोग़ा से...)
देखिए सरकार, इन्ना चरवाहों का गीत गा रहा है।
गीत की धीमी अवाज़ आती है।
दरोग़ा : खुदा ने इन्ना की आवाज़ में बेपनाह ताक़त और कशिश दी है। वाह क्या गाता है। अजीब-सा रूहानी सुकून मिलता है। (ठहर-कर) मैं यहां ठहरूंगा, फसी। तुम जाओ।
(फसी निकल जाता है।)
कारीगर : हुज़ूर, सुल्तान का नाम लिख दिया गया।
दरोग़ा : देखूं तो ज़रा... (ऊपर देखता है। फिर कारीगरों पर बरस पड़ता है) मैं तुम लोगों को वह सज़ा दूंगा कि शैतान भी कांप जाये। (और गुस्से में) तुमने सुल्तान के नाम के बजाय... इन्ना का नाम लिखा है। (ठहरकर) ग़ुलाम इन्ना का नाम महल के दरवाज़े पर। हरामियों, क्या यह महल इन्ना ने बनवाया है जिसे मैंने समरक़न्द के बाज़ार से कौड़ियों के मोल ख़रीदा था?
कारीगर : (ऊपर देखते हुए) हुज़ूर, हमने तो सुल्तान का नाम...
दरोग़ा : लेकिन वहाँ इन्ना का नाम क्यों लिखा हुआ है?
कारीगर : लेकिन सरकार, हमने तो सुल्तान का नाम ही लिखा था।
दरो़गा : (कोड़ा फटकारता हुआ) मुझसे मज़ाक़ करते हो। अगर तुमने सुल्तान का नाम लिखा था तो क्या वह अपने आप मिट गया। (ठहरकर) जाओ, दफ़ा हो जाओ। सुल्तान का नाम लिखो।
(कारीगर चले जाते हैं।)