India Languages, asked by PrachiMadhvi, 2 months ago

'भारत गौरव' काव्य का भावार्थ स्पष्ट कीजिए ।​

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Answered by singhrima571
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Explanation:

मैथिलीशरण गुप्त की कविता भारतीय सांस्कृतिक गौरव का जीता जागता दस्तावेज है। गुप्त का लेखन 1908 से प्रारम्भ हो कर उनके जीवन के अन्त तक अनवरत चलता रहा। यद्यपि उन्होंने मौलिक, अनुदित, प्रबन्ध काव्य, मुक्तक-काव्य, स्फुट छन्द आदि सभी प्रकार की रचनाओं का सृजन किया किन्तु उनकी ख्याति का प्रमुख आधार 1912 में प्रकाशित ‘भारत-भारती’ है। उनका पहला महत्वपूर्ण काव्य ‘भारत-भारती’ है। हिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्र में इतने व्यापक स्तर पर राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना जगाने का जो काम अकेले ‘भारत-भारती’ ने किया, उतना अन्य पुस्तकों ने मिलकर भी नहीं किया। इसी कारण इसे असाधारण लोकप्रियता मिली।1 ‘भारत-भारती’ ने परतंन्त्र भारत की विपरीत परिस्थितियों में जाति व देश के प्रति गर्व व गौरव की भावना जन-जन मे प्रवाहित की। यह वह समय था जब अग्रेंजों की निरंकुशता के सामने पूरा देश लाचार था और स्वतंत्रता की बात तो दूर शासन के खिलाफ कुछ कहने का साहस भी किसी में नहीं था। ऐसे समय में ‘भारत-भारती’ के सृजन ने भारतीयों में नया जोश व स्फूर्ति भर दी। इसे लिखते समय गुप्त ने सम्पूर्ण भारतवर्ष और उसके भूत, वर्तमान व भविष्य को केन्द्र में रखा।

‘हरिगीतिका छन्द में लिखी गयी ‘भारत-भारती’ मे प्राचीन गौरव के प्रति आस्था व्यक्त हुई है, और भविष्य के लिए आशा का सन्देश दिया गया है। इसने तत्कालीन शिक्षित जन-चित्त की आशा आकाँक्षा को बुभुक्षित रहने से बचाया और जनचित्त को उसके प्राचीन गौरव की कहानी सुनाकर सजग और साकांक्ष बनाया और समूचे हिन्दी भाषी प्रदेश को उद्वेलित और प्रेरित करने में इस पुस्तक ने प्रशंसनीय शक्ति का परिचय दिया।’2 ‘भारत-भारती’ की प्रस्तावना में गुप्त जी ने लिखा है-‘ ‘यह बात मानी हुई है कि भारत की पूर्व और वर्तमान दशा में बड़ा भारी अन्तर है, अन्तर न कह कर इसे वैपरीत्य कहना चाहिए। एक वह समय था कि यह देश विद्या, कला कौशल और सभ्यता में संसार का शिरोमणि था और एक यह समय है कि इन्हीं बातों का इसमें सोचनीय अभाव हो गया है। जो आर्य जाति कभी सारे संसार को शिक्षा देती थी वही आज पद-पद पर पराया मुँह ताक रही है। ठीक है, जिसका जैसा उत्थान, उसका वैसा ही पतन। परन्तु क्या हम लोग सदा अवनति में ही पडे़ रहेगे? हमारे देखते-देखते जंगली जातियाँ तक उठकर हमसे आगे बढ़ जाये और हम वैसे ही पडे़ रहें, इससे अधिक दुर्भाग्य की बात और क्या हो सकती है? क्या हमारे लोग अपने मार्ग से यहाँ तक हट गये हैं कि अब उसे पा ही नहीं सकते? क्या हमारी सामाजिक अवस्था इतनी बिगड़ गई है कि वह सुधारी नहीं जा सकती ? क्या सचमुच हमारी यह निद्रा चिरनिद्रा है? क्या हमारा रोग ऐसा असाध्य हो गया है कि उसकी कोई चिकित्सा ही नहीं ?’’3

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