भारत की आत्मकथा
please answer my question
I will mark u brainiest
Answers
Answer:
पहली आत्मकथा
हिन्दी साहित्य में बनारसीदास जैन कृत ‘अर्द्धकथानक’ को पहली आत्मकथा माना जाता है। इसकी रचना सन् 1641 ई. में हुई। सत्रहवीं शताब्दी में रचित जीवन के इस अर्द्धकथानक में घटना, चरित्र-चित्रण, देशकाल, रोचकता, उद्देश्य प्रवृत्ति का सजग निर्वाह आत्मकथात्मक गठाव के साथ है। यह आत्मकथा स्व और अहम् के त्याग की दीनता भरी धारणा और कण-कण में धर्म की छवि देखने वाली भारतीय मानसिकता से अलग अपने बारे में निःसंकोच स्वीकार करती कवि-आत्म-कथाकार की परम्परा विरोधी साहसिकता की परिचायक है और साथ ही भारतीय मानसिकता पर दुराव का आरोप लगाने वालों के लिए एक बड़ा प्रश्न चिह्न भी।
अर्द्धकथानक में दो प्रकार के ऐतिहासिक उल्लेख मिलते हैं- एक वे जिनका सम्बन्ध कवि के जन्मकाल के पूर्व से है और दूसरे वे जिनका सम्बंध उसके जीवनकाल से है। पहले प्रकार के उल्लेखों की एतिहासिकता पर कदाचित हमें विचार करने की आवश्यकता नहीं। दूसरे प्रकार के उल्लेखों को इतिहास की कसौटी पर इतिहासकारों और पाठालोचन के विशेषज्ञों ने परखा है, और कई ऐतिहासिक घटनाओं की प्रामाणिकता पाने पर डा. माता प्रसाद गुप्त ने ‘भूमिका’ में ‘अर्द्धकथा’ की ऐतिहासिकता भलीभाँति प्रमाणित है जैसी निश्चित टिप्पणी दी है।
एक असफल व्यापारी की कथा के रूप में कृति ने व्यापारी वर्ग को जिन यातनाओं, संकटों और असुविधाओं को झेलना पड़ा उन परिस्थितियों का व्यापक रूप में चित्रण किया है। डॉ माताप्रसाद गुप्त ने ‘अर्द्धकथा’ का महत्त्व एक अन्य दृष्टि में और भी अधिक पाया है-
‘‘वह मध्यकालीन उत्तरी भारत की सामाजिक अवस्था तथा धनी और निर्धन प्रजा के सुख-दुख का यथार्थ परिचय देती है। बादशाहों की लिखी दिनचर्याओं और मुसलमान इतिहास लेखकों द्वारा लिखित तत्कालीन तारीखों से हमें शासन और युद्ध सम्बन्धी घटनाओं की अटूट श्रृंखलाएँ भले ही मिल जावें, किंतु इतिहास के उस स्वर्ण युग में राजधानियों से दूर हिन्दू जनता-विशेष करके धनी और व्यापारी वर्ग को अहर्निश कितनी यातनाएँ भोगनी पड़ती थी इसका अनुमान उन दिनचर्याओं और तारीखों से नहीं किया जा सकता। उसके लिए हमें ‘अर्द्धकथा’ ऐसी रचनाओं का ही आश्रय लेना पड़ेगा।’’[1] ब्रजभाषा और खड़ी बोली हिन्दी बोलने वाले क्षेत्र को ही कवि ने मध्यदेश के शब्द से सम्बोधित किया है। व्याकरण की दृष्टि से भी कृति में अनेक विशिष्ट प्रयोग मिलते है। इसमें विसर्ग और ल् के अतिरिक्त देवनागरी के समस्त स्वरों और व्यंजनों का प्रयोग हुआ है। उच्चारण सौंदर्य की दृष्टि से कहीं स्वर बढ़ाया गया है तो कहीं किसी अक्षर का लोप ही कर दिया गया है। ‘कर्ता’ और ‘कर्म’ के प्रयोग वर्तमान हिन्दी में अपने चलन के अनुसार है।