Sociology, asked by ashishchandrol1997, 5 months ago

भारत की सामाजिक जनक की की के क्या लक्षण हैं​

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Answered by shaider
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आज वर्तमान भारत की अनेक समस्याओं मे से एक समस्या है सामाजिक भेदभाव। विगत कई वर्षों से सामाजिक भेदभाव और इसके निराकरण के लिए अनेक सामाजिक कार्यकर्ताओं या समाजसेवियों ने प्रयास किया। कुछ आंशिक सफलता के अलावा किसी को भी सामाजिक भेदभाव समाप्त करने में उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली और यह आज भी समाज में व्याप्त है।

सामाजिक समानता की दिशा में सर्वाधिक उल्लेखनीय कार्य और महत्वपूर्ण कदम उठाया बाबा साहेब अंबेडकर ने। बाबा साहेब ने भारतीय संविधान के माध्यम से सामाजिक भेदभाव को समाप्त करने का प्रयास किया। बाबा साहेब ने भेदभाव को मिटाने के लिए दो महत्वपूर्ण पहलुओं को ध्यान में रखा: सामाजिक असामानता और आर्थिक असमानता। सामाजिक असमानता को मिटाने के लिए संविधान में अस्पृश्यता उन्मूलन कानून की व्यवस्था की गई और आर्थिक असमानता को समाप्त करने हेतु अस्थाई आरक्षण की व्यवस्था।

भारत में व्याप्त सामाजिक असामानता केवल एक वर्ग विशेष के साथ जिसे कि दलित कहा जाता है के साथ ही व्यापक रूप से प्रभावी है परंतु आर्थिक असमानता को केवल दलितों में ही व्याप्त नहीं माना जा सकता। बाबा साहेब सहित अन्य सभी समाजसेवियों ने इस असमानता की खाई को पाटने के लिए अपने अपने तरीके से प्रयास किया और उन सभी के प्रयासों में वर्ण व्यवस्था का विरोध समान रूप से मौजूद था।

आज भी जितने समाजसेवी हैं या तथाकथित दलित हितैषी राजनीतिक दल हैं सभी एक सुर से वर्ण व्यवस्था का विरोध करते हैं। उनकी सोच यह है कि वर्ण व्यवस्था ही सामाजिक असामानता का जनक है।

क्या वास्तव में वर्ण व्यवस्था ही सामाजिक असामानता की जड़ है? यदि ऐसा है तो वर्ण व्यवस्था को जड़ से मिटा देना चाहिए। पर यहाँ एक दूसरे पहलू पर भी सोचना अतिआवश्यक है। एक रुग्ण व्यक्ति को ठीक करने के लिए चिकित्सक भी एक ही औषधि बार बार नहीं देता यदि औषधि के परिणाम संतोषजनक न हों तो। पर भारतीय समाज के चिकित्सक रुपी समाजसेवी इस रुग्ण समाज को ठीक करने के लिए एंटी-वर्ण व्यवस्था की ही खुराक दिए जा रहे हैं भले ही इस दवा का कोई लाभ होता न दिख रहा हो।

अपने इंजीनियरिंग के दस वर्षों से अधिक कार्यकाल में मैंने अनुभव किया कि समस्या जहाँ से उत्पन्न हुई उसका समाधान वहीं छुपा मिलता है। अपनी कार्यक्षेत्र में किसी भी समस्या का निराकरण मैंने इन चरणों का पालन करते हुए पाया है:

1. समस्या के लक्षण जानना

2. वास्तविक समस्या को पहचानना

3. संभावित निदान की सूची तैयार करना

4. सूचीबद्ध निदानों में से एक-एक कर आजमाना

अधिकांशतः समस्या और समस्या के लक्षण में व्यक्ति भ्रमित हो जाता है और कई बार लक्षणों को समस्या मान बैठता है। यदि आपने लक्षण को समस्या मान बैठे तो यकीनन आप समस्या के भँवरजाल में उलझ गए। अब समस्या का निदान संभव नहीं है। लक्षण को समस्या समझने पर आप केवल मरम्मत कर सकते हैं, समस्या जस का तस रहेगा और अपना लक्षण पुनः प्रकट करेगा। ऐसी अवांछनीय स्थिति से बचने के लिए असली समस्या को पहचान कर ठीक करना आवश्यक है। साधारण से उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं – यदि मोटर का शाफ्ट टूट रहा है तो शाफ्ट टूटना समस्या नहीं है, यह लक्षण है। यदि शाफ्ट टूटने को समस्या मान लिया गया तो इसको या तो बदल दिया जाएगा या मरम्मत कर लगा दिया जाएगा। निश्चित रुप से यह शाफ्ट दोबारा टूटेगा। असली समस्या है संरेखण (Alignment अलाइनमेंट)। अलाइनमेंट जब तक ठीक नहीं किया जाएगा तब तक शाफ्ट टूटता रहेगा। और आसान शब्दों में समझने का प्रयास करते हैं- सिर दर्द समस्या नहीं है, यह लक्षण है। केवल सिर दर्द की औषधि आपको क्षणिक राहत दे सकता है पर स्थाई समाधान नहीं। सिर दर्द का लक्षण किस समस्या से आया यह जानना अति महत्वपूर्ण है तभी स्थाई समाधान मिलेगा।

स्वतंत्रता के बाद और पहले से भी अनेक समाजसेवियों ने अस्पृश्यता को खत्म करने के लिए आंदोलन किया। आंदोलन का मुख्य निशाना वर्ण व्यवस्था रहा। पर आज भी यदि इह समस्या की पुनरावृत्ति हो रही है तो कहीं हम लक्षण को समस्या मानने की भूल तो नहीं कर रहे हैं!

मेरा मानना छुआ-छूत लक्षण है और समस्या कहीं और छुपा हुआ है।

एकबारगी मैं अपने से पूर्व हुए विचारकों की बात को सही मान लेता हूँ कि वर्ण व्यवस्था ही छुआ-छूत की जड़ है तब शूद्र वर्ण में सभी के साथ छुआ-छूत होता। परंतु ऐसा नहीं है। स्पष्ट है कि वर्ण व्यवस्था का छुआ-छूत से कोई लेना देना नहीं है। जब तक लक्षण को समस्या मान समाधान खोजा जाएगा तब तक समस्या का हल मिलेगा नहीं।

तब फिर इसका समाधान क्या है? छुआ-छूत किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं है। तब कैसे होगा समाधान? समाधान वहीं मिलेगा जहाँ से इसकी उत्पत्ति माना जा रहा है। हमें अपने ग्रंथों को गहराई से पढ़ना पड़ेगा और समझना पड़ेगा कि वास्तविक वर्ण व्यवस्था क्या है? वर्ण को जाति शब्द का पर्यायवाची समझना बहुत बड़ी गलती है। वर्ण व्यवस्था के बारे में मैंने अपने लेख ‘वर्ण व्यवस्था और इसके संबंध में फैली भ्रांतियाँ’ में विस्तार से इसे बताया है।

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