Science, asked by chitranshpammy123, 9 months ago

भारत के samudrik oyapar ka aitihasik mulyankan kijiye​

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Answered by sagar5838
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भारतीय सामुद्रिक व्यापार पर यूरोपियन प्रभुत्व

1498 में पोर्तगीज के आने से पहले, भारतीय समुद्र में, पश्चिम में पूर्वी अफी्रका और मध्य पूर्व के बंदरगाहों और पूर्व में चीन एवं दक्षिण पूर्व एशिया के बंदरगाहों को भारतीय उपमहाद्वीप के बंदरगाहों से जोड़ने वाले सामुद्रिक रास्ते थे। इन पर किसी भी शक्ति ने एकाधिकार पाने का प्रयास नहीं किया था। मेडीटरेरियन जहां रोमन साम्राज्य के समय और उससे पहले भी, विरोधी शक्तियों ने सैन्य कार्यकलापों से सामुद्रिक व्यापार को नियंत्रित करने की कोशिश की थी; वहीं भारतीय समुद्र में शांतिपूर्ण व्यापार चलता रहा। उस समय दक्षिणी भारत और मलाबार तट के राजा वहां से गुजरने वाले जहाजों से मार्ग कर वसूल सकते थे। जबकि अरब शासकों ने लाल समुद्र से गुजरने वाले जहाजी रास्तों को नियंत्राण में लेने की कोशिश की थी। किसी एक भी राजनैतिक शक्ति ने कोई योजनाबद्ध कोशिश नहीं की कि सामुद्रिक व्यापार जो भारतीय उपमहाद्वीप को छूता था से, सभी दूसरों को हटाया जाये।

आने वाले जहाजों से जो उंचे कर भारतीय बंदरगाह मांग सकते थे वे हमेशा के लिए ’’फ्री पोर्ट’’ को सौंप दिए गए - अर्थात् जहाजों से बहुत ही कम कर मांगने वाले बंदरगाहों को। वास्तव में, भारतीय समुद्र के अनेक बंदरगाहों में तटस्थ सत्ताएं थीं जो विविध देशों और भिन्न धर्म संबंधों के जहाजों को कर मुक्त और समुचित मार्ग मुहैया करतीं थीं।

15 वीं शताब्दी के पहले, अरब और चीनी भौगोलिक अभिलेख जहाजरानी की लम्बी यात्राओं और प्राकृतिक विपदाओं को बतलाते हैं; परंतु किसी प्रकार की राजनैतिक या सैनिक आपदा का वे उल्लेख नहीं करते, सिवाय जल-दस्सुओं की जोखिम के। इस प्रकार से मार्को पोलो, इब्नबतूता, परशियन राजदूत अब्दुर रजाक, वेनेशियन कोन्टी और जेनोआन संतो स्टेफानो जैसे सभी इतिहासकार बताते हैं कि 14 वीं और 15 वीं शताब्दियों में भारतीय समुद्र व्यापार के फलने फूलने का परिदृश्य था।

परंतु एकबार जब पोर्तगीजों ने भारत का नया रास्ता खोज लिया और तब उन्होंने पूर्वी अफी्रका, परशियन गल्फ, भारत में सौराष्ट्र्, कोंकण तथा मलाबार प्रदेश के लाभदाई बंदरगाहों ंको हड़पने में बहुत उत्कंठा दिखलायी। 16 वीं शताब्दी के मघ्य तक, मसाले के धंधे में अर्धइजारेदारी थोप दी और नौसेना रक्षित किलेबंद बस्तियों की श्रृंखला से पोर्तगीज अपने विरोधियों को धीरे-धीरे समाप्त कर सके। पोर्तगीज ने स्थानीय व्यापारियों को सुरक्षा-पास खरीदने और तटकर देने के लिए मजबूर किया। जो भी हो, इजारेदारी के इस प्रयास को गुजराती व्यापारियों, ओमनीज ने और इक में स्थित उत्तरी सुमात्रा की समुद्री ताकतों ने ललकारा। जैसे-जैसे दक्षिण पूर्वी एशिया, चीन और जापान में पोर्तगीज ने बस्तियों का विस्तार किया, स्वयं पश्चिमी इजारेदारी को बचाये रखना कठिन होता गया।

पोर्तगीज को प्रारंभ में सफलताएं मिलीं क्योंकि वे ’’बांटो और जीतो’’ की युद्ध नीति बनाने में चतुर थे। पहले, मुस्लिम व्यापारियों को कालीकट के हिन्दू राजाओं से अलग किया। उस समय, भारतीय समुद्र का मसाले का सबसे बड़ा बाजार भारत था। तटीय महत्व के शहरों पर दो दिन बमबारी करके अपनी अग्नेय शक्ति का प्रदर्शन किया। इन भयावह तरीकों ने पोर्तगीज के पक्ष में काम किया। इस रणनीति को अन्य प्रमुख व्यापारिक केंद्रों पर भी दुहराया गया था। 1510 में, बीजापुर के आडिलशाही राजा ने गोआ का नियंत्राण पोर्तगीज को सौंप दिया। इस बात को जानकर कि भारत से बाहर जाने वाले माल का बड़ा भाग भारतीय समुद्र के तीन बंदरगाहों में उतारा जाता है-परशियन खाड़ी में हारमान, लाल सागर में अदन, और मलय प्रायदीप में मलाका, गोआ के भारतीय गवर्नर अलफेनसो अलबुकर्क ने अपना ध्यान इनमें से प्रत्येक बंदरगाह को कब्जे में लेने पर लगाया। मलाका 1511 में, हारमाज 1515 में जीत लिए गए और मात्रा अदन बच पाया था।

1505 में, पोर्तगीज ने एशिया से यूरोप के मसाला व्यापार को ’’राजशाही इजारेदारी’’ घोषित किया। उसने इसमें सैन्य साधनों के द्वारा खसोटी गई भेंट की संभावनाएं देखीं। पोर्तगीज के राजनैतिक और सैन्य नियंत्राण एकबार हारमज और मलाका पर आये, तब उसने अपनी इजारेदारी को एशिया के अंदरूनी व्यापार तक फैलाने का प्रयत्न किया। इसके लिए उन्हें गुजरातीे व्यापारियों तक की सीधी पहुंच को रोकना आवश्यक था जो यद्यपि मलाका से कट जाते और लाल सागर से व्यापार जारी रखे रह सकते थे। 1509 की सैन्य विजय के बाद भी 20 वर्षों तक, पोर्तगीज गुजरात के बंदरगाहों पर आक्रमण करते रहे, ड्यू और ईजिप्त की जलसेना जो ड्यू के अमीर हसन की सहायता के लिए भेजी गई थी, के मिलेजुले बचाव के विरूद्ध पहले की हार के बाद। परंतु तब भी ड्यू हारा नहीं और मलिक आयाज, ड्यू का दूसरा गवर्नर, को हराने के प्रयास 1520-1521 में भी विफल हुए। 1530 में पोर्तगीज उपनिवेशकों ने काम्बे, सूरत और रनवेर के बंदरगाहों को लूटा और जलाया। गुजरात के सुलतान बहादुर ने कमजोरी के एक क्षण में बेसिन के छोटे बंदरगाह के नियंत्राण को 1534 में, त्याग दिया था। ड्यू जो दो दशकों से झगड़े में पड़ा था, अचानक असुरक्षित हो गया। मुगल साम्राट हुमांयू ने सुलतान बहादुर को हराने के लिए पोर्तगीज से सौदा कर उसे अलग कर दिया। पोेर्तगीज को उस द्वीप पर किला बनाने की अनुमति प्रदान कर दी गई जिससे 1555 तक उस क्षेत्रा पर पोर्तगीज ने पूरी तौर पर राजनैतिक नियंत्राण पा लिया। काम्बे की खाड़ी पर पोर्तगीज का नाविक नियंत्राण पूरा हुआ। उन्होंने 1559 में दमन के बंदरगाह पर भी कब्जा कर लिया। उस समय अपने विकासमय उद्योग और व्यापार के कारण भारत के सबसे धनाढय् प्रदेशों में से एक था। इस प्रकार गुजरात के व्यापारी पोर्तगीज के नियंत्राण में लाये गए और गुजरात ने अपने भाग्य को लगातार गिरते देखा।

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