English, asked by ankush07mahi, 5 months ago

भारत की विभिन्न प्राकृतिक संपादक तथा उनका संरक्षण पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। 100 to 120 words

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Answered by ayushisagar1000
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Answer:

मनुष्य अपने जीविकोपार्जन के लिये प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करता है। आदिम-मानव अपने पर्यावरण से प्राप्त वनस्पतियों एवं पशुओं पर निर्भर था। उस समय जनसंख्या का घनत्व कम था, मनुष्य की आवश्यकताएँ सीमित थीं तथा प्रौद्योगिकी का स्तर नीचे था। अतः उस समय संरक्षण की समस्या नहीं थी। कालान्तर में मनुष्य ने संसाधनों के दोहन की प्रौद्योगिकी में विकास किया। वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास द्वारा मनुष्य जीविकोपार्जी संसाधनों के अतिरिक्त, उत्पादन के संसाधनों का भी दोहन करने लगा। आज आधुनिक तकनीकी की सहायता से संसाधनों का दोहन और भी बड़े पैमाने पर होने लगा है। जनसंख्या की निरंतर वृद्धि के कारण संसाधनों की मांग बढ़ रही है साथ ही प्रौद्योगिकी के विकास द्वारा इन्हें उपभोग करने की मनुष्य की क्षमता भी बढ़ी है अतः इस होड़ ने यह आशंका उत्पन्न कर दी है कि कहीं ये संसाधन शीघ्र समाप्त न हो जाएँ और पूरी मानवता के जीवन पर ही प्रश्नचिन्ह न लग जाए।

संरक्षण से तात्पर्य

प्राकृतिक संपदाओं का योजनाबद्ध और विवेकपूर्ण उपयोग किया जाए तो उनसे अधिक दिनों तक लाभ उठाया जा सकता है, वे भविष्य के लिये संरक्षित रह सकती हैं। संपदाओं या संसाधनों का योजनाबद्ध समुचित और विवेकपूर्ण उपयोग ही उनका संरक्षण है। संरक्षण का यह अर्थ कदापि नहीं कि 1. प्राकृतिक साधनों का प्रयोग न कर उनकी रक्षा की जाए या 2. उनके उपयोग में कंजूसी की जाए या 3. उनकी आवश्यकता के बावजूद उन्हें बचाकर भविष्य के लिये रखा जाए। वरन संरक्षण से हमारा तात्पर्य है कि संसाधनों या संपदाओं का अधिकाधिक समय तक अधिकाधिक मनुष्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अधिकाधिक उपयोग।

संरक्षण की आवश्यकता

मानव विभिन्न प्राकृतिक साधनों का उपयोग अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिये करता आ रहा है। खाद्यान्नों और अन्य कच्चे पदार्थों की पूर्ति के लिये उसने भूमि को जोता है, सिंचाई और शक्ति के विकास के लिये उसने वन्य पदार्थों एवं खनिजों का शोषण और उपयोग किया है। पिछली दो शताब्दियों में जनसंख्या तथा औद्योगिक उत्पादनों की वृद्धि तीव्र गति से हुई है। विश्व की जनसंख्या आज से दो सौ वर्ष पूर्व जहाँ पौने दो अरब थी वहाँ सवा पाँच अरब पहुँच चुकी है। हमारी भोजन, वस्त्र, आवास, परिवहन, साधन, विभिन्न प्रकार के यंत्र, औद्योगिक कच्चे माल आदि की खपत कई गुनी बढ़ गई है और इस कारण हम प्राकृतिक संसाधनों का तेजी से गलत व विनाशकारी ढंग से शोषण करते जा रहे हैं। उदाहरणार्थ, पिछली दो शताब्दियों में करोड़ों हेक्टेयर भूमि से प्राकृतिक वनस्पतियों वन आदि को साफ किया गया जिससे मिट्टी का कटाव बढ़ चला। भूमि के गलत उपयोग से उसकी उत्पादन क्षमता घट गयी। विभिन्न खनिज पदार्थों की संचित राशि समाप्तप्राय हो गयी है। हम हवा और पानी को भी प्रकृति के मुफ्त देन समझकर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दूषित करने लगे हैं। अनेक जीव जंतुओं का भी हमने सफाया कर दिया। तात्पर्य यह है कि प्राकृृतिक संतुलन बिगड़ने लगा है। यदि यह संतुलन नष्ट हुआ तो मानव का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। अतः मानव के अस्तित्व एवं प्रगति के लिये प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण अत्यावश्यक हो चला है।

संसाधनों के संरक्षण के उपाय

प्राकृतिक संपदा हमारी पूँजी है जिसका लाभकारी कार्यों में सुनियोजित ढंग से उपयोग होना चाहिए। इसके लिये पहले हमें किसी देश या प्रदेश के संसाधनों की जानकारी होनी चाहिए। फिर हमें ध्यान रखना चाहिए कि विभिन्न संसाधन परस्परावलम्बी तथा परस्पर प्रभावोत्पादक होते हैं अतः एक का ह्रास हो या नाश हो तो उसका कुप्रभाव पूरे आर्थिक चक्र पर पड़ता है। हमें इनका उपयोग प्राथमिकता के आधार पर करना चाहिए। जो संसाधन या प्राकृतिक संपदा सीमित है उसे अंधाधुंध समाप्त करना अदूरदर्शिता है। सीमित परिभाग वाली संपदा (यथा कोयला, पेट्रोलियम) के विकल्प की खोज करते रहना श्रेयस्कर है। संसाधनों के संरक्षण के लिये सरकारी तथा गैर सरकारी स्तर पर पूर्ण सहयोग मिलना आवश्यक है।

Answered by Anonymous
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मनुष्य अपने जीविकोपार्जन के लिये प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करता है। आदिम-मानव अपने पर्यावरण से प्राप्त वनस्पतियों एवं पशुओं पर निर्भर था। उस समय जनसंख्या का घनत्व कम था, मनुष्य की आवश्यकताएँ सीमित थीं तथा प्रौद्योगिकी का स्तर नीचे था। अतः उस समय संरक्षण की समस्या नहीं थी। कालान्तर में मनुष्य ने संसाधनों के दोहन की प्रौद्योगिकी में विकास किया। वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास द्वारा मनुष्य जीविकोपार्जी संसाधनों के अतिरिक्त, उत्पादन के संसाधनों का भी दोहन करने लगा। आज आधुनिक तकनीकी की सहायता से संसाधनों का दोहन और भी बड़े पैमाने पर होने लगा है। जनसंख्या की निरंतर वृद्धि के कारण संसाधनों की मांग बढ़ रही है साथ ही प्रौद्योगिकी के विकास द्वारा इन्हें उपभोग करने की मनुष्य की क्षमता भी बढ़ी है अतः इस होड़ ने यह आशंका उत्पन्न कर दी है कि कहीं ये संसाधन शीघ्र समाप्त न हो जाएँ और पूरी मानवता के जीवन पर ही प्रश्नचिन्ह न लग जाए।

संरक्षण से तात्पर्य

प्राकृतिक संपदाओं का योजनाबद्ध और विवेकपूर्ण उपयोग किया जाए तो उनसे अधिक दिनों तक लाभ उठाया जा सकता है, वे भविष्य के लिये संरक्षित रह सकती हैं। संपदाओं या संसाधनों का योजनाबद्ध समुचित और विवेकपूर्ण उपयोग ही उनका संरक्षण है। संरक्षण का यह अर्थ कदापि नहीं कि 1. प्राकृतिक साधनों का प्रयोग न कर उनकी रक्षा की जाए या 2. उनके उपयोग में कंजूसी की जाए या 3. उनकी आवश्यकता के बावजूद उन्हें बचाकर भविष्य के लिये रखा जाए। वरन संरक्षण से हमारा तात्पर्य है कि संसाधनों या संपदाओं का अधिकाधिक समय तक अधिकाधिक मनुष्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अधिकाधिक उपयोग।

संरक्षण की आवश्यकता

मानव विभिन्न प्राकृतिक साधनों का उपयोग अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिये करता आ रहा है। खाद्यान्नों और अन्य कच्चे पदार्थों की पूर्ति के लिये उसने भूमि को जोता है, सिंचाई और शक्ति के विकास के लिये उसने वन्य पदार्थों एवं खनिजों का शोषण और उपयोग किया है। पिछली दो शताब्दियों में जनसंख्या तथा औद्योगिक उत्पादनों की वृद्धि तीव्र गति से हुई है। विश्व की जनसंख्या आज से दो सौ वर्ष पूर्व जहाँ पौने दो अरब थी वहाँ सवा पाँच अरब पहुँच चुकी है। हमारी भोजन, वस्त्र, आवास, परिवहन, साधन, विभिन्न प्रकार के यंत्र, औद्योगिक कच्चे माल आदि की खपत कई गुनी बढ़ गई है और इस कारण हम प्राकृतिक संसाधनों का तेजी से गलत व विनाशकारी ढंग से शोषण करते जा रहे हैं। उदाहरणार्थ, पिछली दो शताब्दियों में करोड़ों हेक्टेयर भूमि से प्राकृतिक वनस्पतियों वन आदि को साफ किया गया जिससे मिट्टी का कटाव बढ़ चला। भूमि के गलत उपयोग से उसकी उत्पादन क्षमता घट गयी। विभिन्न खनिज पदार्थों की संचित राशि समाप्तप्राय हो गयी है। हम हवा और पानी को भी प्रकृति के मुफ्त देन समझकर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दूषित करने लगे हैं। अनेक जीव जंतुओं का भी हमने सफाया कर दिया। तात्पर्य यह है कि प्राकृृतिक संतुलन बिगड़ने लगा है। यदि यह संतुलन नष्ट हुआ तो मानव का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। अतः मानव के अस्तित्व एवं प्रगति के लिये प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण अत्यावश्यक हो चला है।

संसाधनों के संरक्षण के उपाय

प्राकृतिक संपदा हमारी पूँजी है जिसका लाभकारी कार्यों में सुनियोजित ढंग से उपयोग होना चाहिए। इसके लिये पहले हमें किसी देश या प्रदेश के संसाधनों की जानकारी होनी चाहिए। फिर हमें ध्यान रखना चाहिए कि विभिन्न संसाधन परस्परावलम्बी तथा परस्पर प्रभावोत्पादक होते हैं अतः एक का ह्रास हो या नाश हो तो उसका कुप्रभाव पूरे आर्थिक चक्र पर पड़ता है। हमें इनका उपयोग प्राथमिकता के आधार पर करना चाहिए। जो संसाधन या प्राकृतिक संपदा सीमित है उसे अंधाधुंध समाप्त करना अदूरदर्शिता है। सीमित परिभाग वाली संपदा (यथा कोयला, पेट्रोलियम) के विकल्प की खोज करते रहना श्रेयस्कर है। संसाधनों के संरक्षण के लिये सरकारी तथा गैर सरकारी स्तर पर पूर्ण सहयोग मिलना आवश्यक है।

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