१. भारत में आर्थिक प्रगति में हिंदी की क्या भूमिका है ? पक्ष और विपक्ष दोनों में लिखें।
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Answer:
पक्ष
वित्तीय वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था में 23.9 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई. हालांकि, इसकी अपेक्षा पहले से ही थी. क्योंकि कोविड-19 महामारी की रोकथाम के लिए लॉकडाउन लगाया गया था. आर्थिक वृद्धि में कमी आई तो इसी दौरान पर्यावरण के तमाम संकेतकों ने सुधार का इशारा किया. इससे साफ़ हो गया कि जब आर्थिक गतिविधियां रुक जाती हैं, तो प्राकृतिक स्थितियों में सुधार आता है. इसे हम इस तरह माप सकते हैं कि हरित क्षेत्र में वृद्धि हुई. शहरी क्षेत्रों में हवा की क्वालिटी में सुधार आया. जल और ज़मीन दोनों जगह पर रहने वाले जीवों की प्रजनन की गतिविधियों में परिवर्तन दर्ज किया गया. नदियों में पानी का बहाव भी अच्छा हुआ. लॉकडाउन के दौरान पर्यावरण में सुधार के सभी संकेतकों में सुधार का अर्थ है कि हमारी आब-ओ-हवा की क्वॉलिटी भी बेहतर हुई. मात्रा भी बढ़ी और अन्य मानकों में भी सुधार देखा गया. लॉकडाउन के दौरान पर्यावरण में आया सुधार इस बात का इशारा करता है कि भारत में अभी भी पर्यावरण के कुज़नेट्स कर्व में उभार वाला देश है. (अगर ये कर्व है तो)
यहां एक और सवाल उठता है कि ‘ग्रीन ग्रोथ’ और ‘डिग्रोथ’ को लेकर जो दृष्टिकोण दिए जा रहे हैं, वो कहां तक उचित हैं. बहुत से विकसित देशों में पहले ही इस बात पर लगभग आम राय बन चुकी है कि विकास की मौजूदा दर को बनाए रखने के चलते प्राकृतिक इकोसिस्टम का क्षरण हो रहा है. क़ुदरती संसाधनों को नुक़सान पहुंच रहा है. आर्थिक तरक़्क़ी के चलते न केवल इको-सिस्टम संबंधी सेवाओं को नुक़सान पहुंचता है. बल्कि, बहुत से देशों की हर जीव को समान अधिकार देने वाली पारंपरिक सोच को भी क्षति पहुंचती है. यहां पर आधुनिकता की तुलना उपभोक्तावाद से की जाती है. जहां पर बेलगाम विकास और बेहिसाब खपत होती है, जिसे पूरा करना प्रकृति के लिए संभव नहीं है. दुनिया के अमीर देशों में बेहिसाब खपत की भावना के चलते प्राकृतिक इको-सिस्टम को कितना नुक़सान पहुंच रहा है, ये बात यहां दोहराने की ज़रूरत नहीं है. लेकिन, यहां हम इस बात से भी इनकार नहीं कर सकते हैं कि विकास दर को बढ़ाने की जो चाह है, उससे भी प्राकृतिक संसाधन और परिस्थितियों को बहुत नुक़सान पहुंचा है. विकास दर को लेकर हमारे इस पूर्वाग्रह का ज़िक्र मैं पहले भी कई बार अपने लेखों में कर चुका हूं. विकासशील और अविकसित देशों में ये अवधारणा है कि विकास की प्रक्रिया एक ही दिशा में, और एक ही लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए चलती है. यानी जीडीपी ग्रोथ रेट पर ही ज़ोर दिया जाता है. और इसके लिए अन्य प्रमुख विषयों जैसे कि समानता और टिकाऊ विकास के बारे में नहीं सोचा जाता है. पर हम इस बात से भी इनकार नहीं कर सकते हैं कि आमदनी का विकास, मानव के आर्थिक अस्तित्व का एक अटूट अंग है. इसीलिए, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के साथ साथ पर्यावरण संतुलन बनाने के लिए अब ‘हरित विकास’ या Green Growth के विचार को बढ़ावा दिया जा रहा है. माना जाता है कि इस तरह से हम विकास की ज़रूरतों को पूरा करने के साथ साथ प्रकृति के संरक्षण का काम भी कर सकेंगे.
Explanation:
मॅऋक बृअॅईण्ळीएसट
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Answer:
पक्ष
वित्तीय वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था में 23.9 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई. हालांकि, इसकी अपेक्षा पहले से ही थी. क्योंकि कोविड-19 महामारी की रोकथाम के लिए लॉकडाउन लगाया गया था. आर्थिक वृद्धि में कमी आई तो इसी दौरान पर्यावरण के तमाम संकेतकों ने सुधार का इशारा किया. इससे साफ़ हो गया कि जब आर्थिक गतिविधियां रुक जाती हैं, तो प्राकृतिक स्थितियों में सुधार आता है. इसे हम इस तरह माप सकते हैं कि हरित क्षेत्र में वृद्धि हुई. शहरी क्षेत्रों में हवा की क्वालिटी में सुधार आया. जल और ज़मीन दोनों जगह पर रहने वाले जीवों की प्रजनन की गतिविधियों में परिवर्तन दर्ज किया गया. नदियों में पानी का बहाव भी अच्छा हुआ. लॉकडाउन के दौरान पर्यावरण में सुधार के सभी संकेतकों में सुधार का अर्थ है कि हमारी आब-ओ-हवा की क्वॉलिटी भी बेहतर हुई. मात्रा भी बढ़ी और अन्य मानकों में भी सुधार देखा गया. लॉकडाउन के दौरान पर्यावरण में आया सुधार इस बात का इशारा करता है कि भारत में अभी भी पर्यावरण के कुज़नेट्स कर्व में उभार वाला देश है. (अगर ये कर्व है तो)
यहां एक और सवाल उठता है कि ‘ग्रीन ग्रोथ’ और ‘डिग्रोथ’ को लेकर जो दृष्टिकोण दिए जा रहे हैं, वो कहां तक उचित हैं. बहुत से विकसित देशों में पहले ही इस बात पर लगभग आम राय बन चुकी है कि विकास की मौजूदा दर को बनाए रखने के चलते प्राकृतिक इकोसिस्टम का क्षरण हो रहा है. क़ुदरती संसाधनों को नुक़सान पहुंच रहा है. आर्थिक तरक़्क़ी के चलते न केवल इको-सिस्टम संबंधी सेवाओं को नुक़सान पहुंचता है. बल्कि, बहुत से देशों की हर जीव को समान अधिकार देने वाली पारंपरिक सोच को भी क्षति पहुंचती है. यहां पर आधुनिकता की तुलना उपभोक्तावाद से की जाती है. जहां पर बेलगाम विकास और बेहिसाब खपत होती है, जिसे पूरा करना प्रकृति के लिए संभव नहीं है. दुनिया के अमीर देशों में बेहिसाब खपत की भावना के चलते प्राकृतिक इको-सिस्टम को कितना नुक़सान पहुंच रहा है, ये बात यहां दोहराने की ज़रूरत नहीं है. लेकिन, यहां हम इस बात से भी इनकार नहीं कर सकते हैं कि विकास दर को बढ़ाने की जो चाह है, उससे भी प्राकृतिक संसाधन और परिस्थितियों को बहुत नुक़सान पहुंचा है. विकास दर को लेकर हमारे इस पूर्वाग्रह का ज़िक्र मैं पहले भी कई बार अपने लेखों में कर चुका हूं. विकासशील और अविकसित देशों में ये अवधारणा है कि विकास की प्रक्रिया एक ही दिशा में, और एक ही लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए चलती है. यानी जीडीपी ग्रोथ रेट पर ही ज़ोर दिया जाता है. और इसके लिए अन्य प्रमुख विषयों जैसे कि समानता और टिकाऊ विकास के बारे में नहीं सोचा जाता है. पर हम इस बात से भी इनकार नहीं कर सकते हैं कि आमदनी का विकास, मानव के आर्थिक अस्तित्व का एक अटूट अंग है. इसीलिए, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के साथ साथ पर्यावरण संतुलन बनाने के लिए अब ‘हरित विकास’ या Green Growth के विचार को बढ़ावा दिया जा रहा है. माना जाता है कि इस तरह से हम विकास की ज़रूरतों को पूरा करने के साथ साथ प्रकृति के संरक्षण का काम भी कर सकेंगे.
Explanation:
मॅऋक बृअॅईण्ळीएसट