भारत में अनेक समस्याएँ हैं जो देश की उन्नति में बधाएँ पैदा करती हैं । ये समस्याएँ बेरोजगारी बढ़त
ननसंख्या, दहेज प्रथा , प्रदूषण , आतंकवाद ,बढ़ती महंगाई है । इन समस्याओं में बढ़ती महंगाईभी बहुत बड़
समस्या है | भारत की आर्थिक समस्याओं के अंतर्गत महंगाई की समस्या बहुत विकराल समस्या है । सभी वस्तुअं
के दाम इतनी तेज़ी से बढ़ती है कि आम आदमी के लिए निर्वाण करना ही दूभर होता है । काका हायरसी ने बढ़त
महंगाई के चित्रण करते हुए कहा है कि वे दिन आता याद जेब में पैसे रखकर सौदा लाते थे बाजार से थैला भरक
क्का मारा युग ने मुद्रा की क्रेडिट में थैले में रूपये है सौदा है पॉकेट में । महंगाई बढ़ने के अनेक कारण हैं जिन
तनसंख्या का बढ़ना, कृषि उत्पादन व्यय में वृद्धि , उत्पादकों तथा व्यापारियों की अधिक पैसा कमानेकी प्रवृत्ति, मुद्र
सार एवं स्फीति देश में बढ़ती भ्रष्टाचार एवं प्रशासन की शिथिलता घाटे की अर्थव्यवस्था तथा धन का आसान
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उत्तर वैदिक काल – ऋगवैदिक काल में दहेज प्रथा का कोई औचित्य या मान्यता नहीं थी. अथर्ववेद के अनुसार उत्तरवैदिक काल में वहतु के रूप में इस प्रथा का प्रचलन शुरू हुआ जिसका स्वरूप वर्तमान दहेज व्यवस्था से पूरी तरह भिन्न था. इस काल में युवती का पिता उसे पति के घर विदा करते समय कुछ तोहफे देता था. लेकिन उसे दहेज नहीं मात्र उपहार माना जाता था. यह पूर्व निश्चित नहीं होता था. उस समय पिता को जो देना सही लगता था वह अपनी इच्छा से दे देता था जिसे वर पक्ष सहर्ष स्वीकार कर लेता था. इसमें न्यूनतम या अधिकतम जैसी कोई सीमा निर्धारित नहीं थी. इस वहतु पर पति या ससुराल वालों का अधिकार नहीं होता था बल्कि यह उस संबंधित स्त्री के लिए उपहार होता था. इस काल में लिखे गए धर्म ग्रंथों और पौराणिक कथाओं में कहीं भी दहेज से संबंधित कोई भी प्रसंग नहीं उल्लिखित किया गया.
मध्य काल – मध्य काल में इस वहतु को स्त्रीधन के नाम से पहचान मिलने लगी. इसका स्वरूप वहतु के ही समान था. पिता अपनी इच्छा और काबीलियत के अनुरूप धन या तोहफे देकर बेटी को विदा करता था. इसके पीछे मुख्य कारण यह था कि जो उपहार वो अपनी बेटी को दे रहा है वह किसी परेशानी में या फिर किसी बुरे समय में उसके और उसके ससुराल वालों के काम आएगा. इस स्त्रीधन से ससुराल पक्ष का कोई संबंध नहीं होता था. लेकिन इसका स्वरूप पहले की अपेक्षा थोड़ा विस्तृत हो गया था. अब विदाई के समय धन को भी महत्व दिया जाने लगा था. विशेषकर राजस्थान के उच्च और संपन्न राजपूतों ने इस प्रथा को अत्याधिक बढ़ा दिया. इसके पीछे उनका मंतव्य ज्यादा से ज्यादा धन व्यय कर अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाना था. यही से इस प्रथा की शुरूआत हुई जिसमें स्त्रीधन शब्द पूरी तरह गौण हो गया और दहेज शब्द की उत्पत्ति हुई.
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आधुनिक काल – वर्तमान समय में दहेज व्यवस्था एक ऐसी प्रथा का रूप ग्रहण कर चुकी है जिसके अंतर्गत युवती के माता-पिता और परिवारवालों का सम्मान दहेज में दिए गए धन-दौलत पर ही निर्भर करता है. वर-पक्ष भी सरेआम अपने बेटे का सौदा करता है. प्राचीन परंपराओं के नाम पर युवती के परिवार वालों पर दबाव डाल उन्हें प्रताड़ित किया जाता है. इस व्यवस्था ने समाज के सभी वर्गों को अपनी चपेट में ले लिया है. संपन्न परिवारों को शायद दहेज देने या लेने में कोई बुराई नजर नहीं आती. क्योंकि उन्हें यह मात्र एक निवेश लगता है. उनका मानना है कि धन और उपहारों के साथ बेटी को विदा करेंगे तो यह उनके मान-सम्मान को बढ़ाने के साथ-साथ बेटी को भी खुशहाल जीवन देगा. लेकिन निर्धन अभिभावकों के लिए बेटी का विवाह करना बहुत भारी पड़ जाता है. वह जानते हैं कि अगर दहेज का प्रबंध नहीं किया गया तो विवाह के पश्चात बेटी का ससुराल में जीना तक दूभर बन जाएगा.
दहेज प्रथा को समाप्त करने के लिए अब तक कितने ही नियमों और कानूनों को लागू किया गया हैं, जिनमें से कोई भी कारगर सिद्ध नहीं हो पाया. 1961 में सबसे पहले दहेज निरोधक कानून अस्तित्व में आया जिसके अनुसार दहेज देना और लेना दोनों ही गैरकानूनी घोषित किए गए. लेकिन व्यावहारिक रूप से इसका कोई लाभ नहीं मिल पाया. आज भी बिना किसी हिचक के वर-पक्ष दहेज की मांग करता है और ना मिल पाने पर नववधू को उनके कोप का शिकार होना पड़ता है.
1985 में दहेज निषेध नियमों को तैयार किया गया था. इन नियमों के अनुसार शादी के समय दिए गए उपहारों की एक हस्ताक्षरित सूची बनाकर रखा जाना चाहिए. इस सूची में प्रत्येक उपहार, उसका अनुमानित मूल्य, जिसने भी यह उपहार दिया है उसका नाम और संबंधित व्यक्ति से उसके रिश्ते का एक संक्षिप्त विवरण मौजूद होना चाहिए. नियम बना तो दिए जाते हैं लेकिन ऐसे नियमों को शायद ही कभी लागू किया जाता है. 1997 की एक रिपोर्ट में अनुमानित तौर पर यह कहा गया कि प्रत्येक वर्ष 5,000 महिलाएं दहेज हत्या का शिकार होती हैं. उन्हें जिंदा जला दिया जाता है जिन्हें दुल्हन की आहुति के नाम से जाना जाता है.
दहेज एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था है जिसका परित्याग करना बेहद जरूरी है. उल्लेखनीय है कि शिक्षित और संपन्न परिवार भी दहेज लेना अपनी परंपरा का एक हिस्सा मानते हैं तो ऐसे में अल्पशिक्षित या अशिक्षित लोगों की बात करना बेमानी है. युवा पीढ़ी, जिसे समाज का भविष्य समझा जाता है, उन्हें इस प्रथा को समाप्त करने के लिए आगे आना होगा ताकि भविष्य में प्रत्येक स्त्री को सम्मान के साथ जीने का अवसर मिले और कोई भी वधू दहेज हत्या की शिकार ना होने पाए.