Social Sciences, asked by rajendarsinghuk000, 4 months ago

भारत में बेरोजगारी के प्रमुख कारणों की विवेचना करते हुए उन्हें दूर करने के उपाय पर प्रकाश डालिए​

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Answered by aadhyajain91
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Answer:

मजदूरी की दर से तात्पर्य प्रचलित मजदूरी की दर से है और मजदूरी प्राप्त करने की इच्छा का अर्थ प्रचलित मजदूरी की दरों पर कार्य करने की इच्छा है। यदि कोई व्यक्ति उसी समय काम करना चाहे जब प्रचलित मजदूरी की दर पंद्रह रुपए प्रतिदिन हो और उस समय काम करने से इन्कार कर दे, जब प्रचलित मजदूरी बारह रुपए प्रतिदिन हो, ऐसे व्यक्ति को बेकार अथवा बेरोजगारी की अवस्था से त्रस्त नहीं कहा जा सकता। इसके अतिरिक्त ऐसे भी व्यक्ति को बेकार अथवा बेरोजगारी से त्रस्त नहीं कह सकते जो कार्य तो करना चाहता है परंतु बीमारी के कारण कार्य नहीं कर पाता। बालक, रोगी, वृद्ध तथा असहाय लोगों को "रोजगार अयोग्य" (unemployables) तथा साधु, पीर, भिखमंगे तथा कार्य न करनेवाले जमींदार, सामंत आदि व्यक्तियों को पराश्रयी कहा जा सकता है।

कारण एवं भेद

बेरोजगारी का अस्तित्व श्रम की माँग और उसकी आपूर्ति के बीच स्थिर अनुपात पर निर्भर करता है। बेरोजगारी के दो भेद हैं - असंतुलनात्मक (फ्रिक्शनल) तथा ऐच्छिक (वालंटरी)। असंतुलनात्मक बेरोजगारी श्रम की माँग में परिवर्तन के कारण होती है। ऐच्छिक बेरोजगारी का प्रभाव उस समय होता है जब मजदूर अपनी वास्तविक मजदूरी में कटौती को स्वीकार नहीं करता। समग्रत: बेरोजगारी श्रम की माँग और पूर्ति के बीच असंतुलित स्थिति का प्रतिफल है।

प्रोफेसर जे.एम. कीन्स "अनैच्छिक बेरोजगारी" को भी बेरोजगारी का भेद मानते हैं। "अनैच्छिक बेरोजगारी" की परिभाषा करते हुए उन्होंने लिखा है -

'जब कोई व्यक्ति प्रचलित वास्तविक मजदूरी से कम वास्तविक मजदूरी पर कार्य करने के लिए तैयार हो जाता है, चाहे वह कम नकद मजदूरी स्वीकार करने के लिए तैयार न हो, तब इस अवस्था को अनैच्छिक बेरोजगारी कहते हैं।'

यदि कोई व्यक्ति किसी उत्पादक व्यवसाय में कार्य करता है तो इसका यह अर्थ नहीं है कि वह बेकार नहीं है। ऐसे व्यक्तियों को पूर्णरूपेण रोजगार में लगा हुआ नहीं माना जाता जो आंशिक रूप से ही कार्य में लगे हैं अथवा उच्च कार्य की क्षमता रखते हुए भी निम्न प्रकार के लाभकारी व्यवसायों में कार्य करते हैं।

समस्या निदान के प्रयास

जापान में बेरोजगारी (१९५३ से २००९ तक)

सन् 1919 ई. में अंतरराष्ट्रीय श्रमसम्मेलन के वाशिंगटन अधिवेशन ने बेरोजगारी अभिसमय (Unemployment convention) संबंधी एक प्रस्ताव स्वीकार किया था जिसमें कहा गया था कि केंद्रीय सत्ता के नियंत्रण में प्रत्येक देश में सरकारी कामदिलाऊ अभिकरण स्थापित किए जाए। सन् 1931 ई. में भारत राजकीय श्रम के आयोग (Royal Commission on Labour) ने बेरोजगारी की समस्या पर विचार किया और निष्कर्ष रूप में कहा कि बेरोजगारी की समस्या विकट रूप धारण कर चुकी है। यद्यपि भारत ने अंतर्राष्ट्रीय श्रमसंघ का "बेरोजगारी संबंधी" समझौता सन् 1921 ई. में स्वीकार कर लिया था परंतु इसके कार्यान्वयन में उसे दो दशक से भी अधिक का समय लग गया।

सन् 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट में बेरोजगारी (बेरोजगारी) प्रांतीय विषय के रूप में ग्रहण की गई। परंतु द्वितीय महायुद्ध समाप्त होने के बाद युद्धरत तथा फैक्टरियों में काम करनेवाले कामगारों को फिर से काम पर लगाने की समस्या उठ खड़ी हुई। 1942-1944 में देश के विभिन्न भागों में कामदिलाऊ कार्यालय खोले गए परंतु कामदिलाऊ कार्यालयों की व्यवस्था के बारे में केंद्रीकरण तथा समन्वय का अनुभव किया गया। अत: एक पुनर्वास तथा नियोजन निदेशालय (Directorate of Resettlement and Employment) की स्थापना की गई है। हम ये रोक सकते हैं।

बेरोजगारी के प्रकार

संरचनात्मक बेरोजगारी : सरचनात्मक बेरोजगारी वह बेरोजगारी है जो अर्थव्यवस्था मे होने वाले संरचनात्मक बदलाव के कारण उत्पन्न होती है।

अल्प बेरोजगारी : अल्प बेरोजगारी वह स्थिति होती है जिसमै एक श्रमिक जितना समय काम कर सकता है उससे कम समय वह काम करता है। दूूसरे शब्दो में, वह एक वर्ष मैं कुछ महीने या प्रतिदिन कुछ घंटे बेकार रहता है। अल्प बेरोजगारी के दो प्रकार है-

दृष्य अल्प रोजगार: इस स्थिति में, लोगो को सामान्य घन्टों से कम घन्टे काम मिलता है।

अदृष्य अल्प रोजगार : इस स्थिति मै, लोग पूरा दिन काम करते हैं पर उनकी आय बहुत कम होती है या उनको ऐसे काम करने पडते हैं जिनमें वे अपनी योग्यता का पूरा उपयोग नहीं कर सकते।

खुली बेरोजगारी : उस स्थिति को कह्ते है जिसमे यद्यपि श्रमिक काम करने के लिये उत्सुक है और उसमें काम करने की आवश्यक योग्यता भी है तथापि उसे काम प्राप्त नही होता। वह पूरा समय बेकार रहता है। वह पूरी तरह से परिवार के कमाने वाले सदस्यों पर आश्रित होता है। ऐसी बेरोजगारी प्राय: कृषि-श्रमिको, शिक्षित व्यक्तियों तथा उन लोगों में पायी जाती है। जो गावों से शहरी हिस्सों में काम की तलाश में आते हैं पर उन को कोई काम नही मिलता। यह बेरोजगारी का नग्न रूप है।

मौसमी बेरोजगारी: इसका अर्थ एक व्यक्ति को वर्ष के केवल मौसमी महीनो में काम प्राप्त होता है। भारत में कृषि क्षेत्र में यह आम बात है। इधर बुआई तथा कटाई के मौसमों में अधिक लोगों को काम मिल जाता है किन्तु शेष वर्ष वे बेकार रहते हैं। एक अनुमान के अनुसार, यदि कोई किसान वर्ष मैं केवल एक ही फसल की बुआई करता है तो वह कुछ महिने तक बेकार रहता है। इस स्थिति को मौसमी बेरोजगारी माना जाता है।

चक्रीय बेरोजगारी : ऐसी बेरोजगारी तब उत्पन्न होती है जब अर्थव्यवस्था में चक्रीय ऊंच नीच आती है। तेजी, आर्थिक सुस्ती, आर्थिक मंदी तथा पुनरुत्थान चार अवस्थाएं या चक्र है जो एक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की मुख्य विशेषताएं हैं। आर्थिक तेजी की अवस्था में आर्थिक क्रिया उच्च स्तर पर होती है तथा रोजगार का स्तर भी बहुत ऊंचा होता है। जब अर्थव्यवस्था मैं कुल ज़रुरत के घटने की प्रवृत्ति पाई जाती है।

छिपी बेरोजगारी : छिपी बेरोजगारी से पीडित व्यक्ति वह होता है जो ऐसे दिखाई देता है जेसे कि वह काम में लगा हुआ है, परन्तु वास्तव में ऐसा नही होता।

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