भारत में भूमि समस्याओं को सुलझाने के लिए भौतिक दृष्टिकोण के अन्तर्गत किन्हीं दो
तरीकों की व्याख्या करिए ।
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भारत में भूमि समस्याओं को सुलझाने के लिए भौतिक दृष्टिकोण के अन्तर्गत ...........
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देश का कुल क्षेत्रफल उस सीमा को निर्धारित करता है जहाँ तक विकास प्रक्रिया के दौरान उत्पत्ति के साधन के रूप में भूमि का समतल विस्तार संभव होता है। जैसे-जैसे विकास प्रक्रिया आगे बढ़ती है और नये मोड़ लेती है, समतल भूमि की माँग बढ़ती है, नये कार्यों और उद्योगों के लिये भूमि की आवश्यकता होती है व परम्परागत उपयोगों में अधिक मात्रा में भूमि की माँग की जाती है। सामान्यतया इन नये उपयोगों अथवा परम्परागत उपयोगों में बढ़ती हुई भूमि की माँग की आपूर्ति के लिये कृषि के अंतर्गत भूमि को काटना पड़ता है और इस प्रकार भूमि कृषि उपयोग से गैर कृषि कार्यों में प्रयुक्त होने लगती है। एक विकासशील अर्थव्यवस्था के लिये जिसकी मुख्य विशेषतायें श्रम अतिरेक व कृषि उत्पादों के अभाव की स्थिति का बना रहना है। कृषि उपयोग से गैर कृषि उपयोगों में भूमि का चला जाना गंभीर समस्या का रूप धारण कर सकता है। जहाँ इस प्रक्रिया से एक ओर सामान्य कृषक के निर्वाह श्रोत का विनाश होता है, दूसरी ओर समग्र अर्थ व्यवस्था की दृष्टि से कृषि पदार्थों की माँग और पूर्ति में गंभीर असंतुलन उत्पन्न हो सकते हैं। कृषि पदार्थों की आपूर्ति में अर्थव्यवस्था में अनेक अन्य गंभीर समस्याओं को जन्म दे सकती है। इसलिये यह आवश्यक समझा जाता है कि विकास प्रक्रिया के दौरान जैसे-जैसे समतल भूमि की माँग बढ़ती है उसी के साथ ही बंजर परती तथा बेकार पड़ी भूमि को कृषि अथवा गैर कृषि कार्यों के योग्य बनाने के लिये प्रयास करना चाहिए। प्रयास यह होना चाहिए कि खेती-बाड़ी के लिये उपलब्ध भूमि के क्षेत्र में किसी प्रकार की कमी न आये वरन जहाँ तक संभव हो कृषि योग्य परती भूमि में सुधार करें। कृषि कार्यों के लिये उपलब्ध भूमि में वृद्धि ही की जानी चाहिए।
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