भारत
में चिकित्सा व्यवस्था nibandh
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प्राचीन भारत में स्वास्थ्य को किसी व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, आध्यात्मिक और सामाजिक कल्याण के रूप में परिभाषित किया गया था। इस प्रकार, औषधि की चिकित्सा पद्धति केवल रोग और स्वतंत्र उपचार प्रणाली से संबंधित नहीं थी।
यह व्यक्ति के उपचार में विभिन्न संकल्पनाओं यथा आहार, जलवायु, आस्था, संस्कृति, अलौकिक एवं आनुभविक अवधारणाओं आदि को शामिल करती थी।
उपचार के लिए प्राकृतिक और निवारक दृष्टिकोण पर बल दिया जाता था। इसका उद्देश्य रोग के मूल कारण का उपचार करना था।
इस क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण चिकित्सकों में सुश्रुत, चरक और वाग्भट शामिल थे। सुश्रुत को “भारतीय शल्य चिकिसा का जनक” भी माना जाता है।
इस प्रकार, भारत के सबसे महत्वपूर्ण योगदानों में योग, ध्यान एवं आयुर्वेद शामिल हैं।
इसके अतिरिक्त, दक्षिण-पूर्व, इंडोनेशिया, तिब्बत और जापान सहित संपूर्ण एशिया में भारतीय चिकित्सा पद्धतियों का उत्तरोत्तर प्रसार हुआ था।
आधुनिक समय में स्वास्थ्य को प्रायः नकारात्मक अर्थ में समझा जाता है अर्थात् इसका अर्थ रोगों की अनुपस्थिति को माना जाता है।
हालांकि, यह परिभाषा सीमित और संकीर्ण है। अमर्त्य सेन के अनुसार, “स्वास्थ्य एक सामाजिक वस्तु है। एक व्यक्ति को स्वस्थ कहा जाना चाहिए, यदि वह समाज में सक्रिय रूप से भाग लेने में सक्षम है”।
हमारे वैदिक ग्रंथों में भी स्वास्थ्य को समग्रता में देखा गया था। इसे धन/संपदा का व्यापक रूप और सुख का मार्ग माना जाता था।