भारत मे ग्रामिण क्षेत्रो मे बालिकार कमी कति
माध्यमिक स्तरकी शिक्षा प्राप्त करने मैसमतलटि
होती।इसकेतीन कारण है।
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ग्रामीण क्षेत्र में दिखाई दे रहे सार्थक बदलाव शिक्षा के अधिकार कानून के धरातल पर क्रियान्वित होने के परिणाम हैं। यही वज़ह है कि लगभग सभी सरकारी स्कूलों में नामांकन की वृद्धि दर्ज की गई है। ये आँकड़े उत्साहवर्द्धक अवश्य हैं, लेकिन गाँवों में प्राथमिक शिक्षा की वास्तविकता के बारे में केवल इनके आधार पर कोई निष्कर्ष निकलना उचित नहीं होगा।
छह से 14 वर्ष की आयु के बच्चों का स्कूलों में नामांकन लगभग 95% है।
11 से 14 वर्ष आयु तक की विद्यालय न जाने वाली लड़कियों का प्रतिशत केवल 4.1 है।
इसके विपरीत 2014 से 2018 के बीच निजी स्कूलों में नामांकन का आँकड़ा 30-31% के बीच रहा।
शिक्षा का अधिकार कानून-2009 के बाद से स्कूलों की संख्या में वृद्धि, शिक्षकों की नियुक्ति और प्रशिक्षण, शौचालय और खेल के मैदान जैसी बुनियादी सविधाओं में सुधार और स्कूल तक बच्चों को लाने के लिये की जाने वाली पहलों की वज़ह से सरकारी विद्यालयों में नामांकन बढ़ा है।
लेकिन एक-चौथाई सरकारी स्कूलों में आज भी बच्चों का नामांकन प्रतिशत 60 और इससे कम है। इसमें वे बच्चे शामिल हैं जो नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार न मिलने पर स्कूल नहीं जा पाते हैं और जिनके परिवार शिक्षा का आर्थिक भार नहीं उठा सकते और जो शिक्षा के बदले घरेलू व खेती के कामों में बड़ों का हाथ बँटाते हैं।
इस रिपोर्ट में यह खुलासा भी किया गया है कि प्राथमिक स्कूलों में जो बच्चे आ रहे हैं उनकी उपलब्धि की क्या हालत है।
वर्ष 2008 में आठवीं कक्षा में पढ़ने वाले लगभग 85% विद्यार्थी कक्षा 2 की ही किताब पढ़ सकते थे, जबकि 2018 में इनकी संख्या घटकर लगभग 73% रह गई है।
वर्ष 2018 के सर्वे में आठवीं कक्षा के केवल 44% बच्चे तीन अंकों में एक अंक से भाग देने का सवाल हल कर पाने में सक्षम पाए गए, जबकि वर्ष 2012 में यह आँकड़ा 48% था।
निजी स्कूलों के बच्चे बेहतर
बच्चों की शैक्षिक उपलब्धि के संदर्भ में निजी स्कूलों के बच्चे सरकारी स्कूलों के बच्चों से बेहतर हैं।
2018 के आँकड़े बताते हैं कि पाँचवीं कक्षा के ऐसे बच्चे जो कक्षा 2 की पठन दक्षता रखते हैं, का प्रतिशत सरकारी स्कूलों में 44 और निजी स्कूलों में 66 है।
इसके पक्ष में निजी स्कूलों की आधार-संरचना, अध्यापकों की निगरानी और समर्पित प्रबंधन का तर्क पर्याप्त नहीं है। यह ज़रूर है कि निजी स्कूलों के बच्चों के अभिभावक पढ़ाई का खर्च उठा सकते हैं। यानी कि उनका सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश घर पर पढ़ने-पढ़ाने में सहयोग देने वाला होता है। घर और स्कूल दोनों जगहों पर सीखने के कारण बच्चे कुशलता को अर्जित कर रहे हैं। दूसरी ओर, गाँवों के निजी स्कूल शहरी निजी स्कूलों की तरह सुविधायुक्त नहीं हैं। वे कम फीस लेते हैं और साधारण संसाधनों से युक्त हैं। सरकारी स्कूलों के बच्चों और अभिभावकों के संदर्भ में इसका अभाव है।
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ग्रामीण क्षेत्र में दिखाई दे रहे सार्थक बदलाव शिक्षा के अधिकार कानून के धरातल पर क्रियान्वित होने के परिणाम हैं। यही वज़ह है कि लगभग सभी सरकारी स्कूलों में नामांकन की वृद्धि दर्ज की गई है। ये आँकड़े उत्साहवर्द्धक अवश्य हैं, लेकिन गाँवों में प्राथमिक शिक्षा की वास्तविकता के बारे में केवल इनके आधार पर कोई निष्कर्ष निकलना उचित नहीं होगा।
छह से 14 वर्ष की आयु के बच्चों का स्कूलों में नामांकन लगभग 95% है।
11 से 14 वर्ष आयु तक की विद्यालय न जाने वाली लड़कियों का प्रतिशत केवल 4.1 है।
इसके विपरीत 2014 से 2018 के बीच निजी स्कूलों में नामांकन का आँकड़ा 30-31% के बीच रहा।
शिक्षा का अधिकार कानून-2009 के बाद से स्कूलों की संख्या में वृद्धि, शिक्षकों की नियुक्ति और प्रशिक्षण, शौचालय और खेल के मैदान जैसी बुनियादी सविधाओं में सुधार और स्कूल तक बच्चों को लाने के लिये की जाने वाली पहलों की वज़ह से सरकारी विद्यालयों में नामांकन बढ़ा है।
लेकिन एक-चौथाई सरकारी स्कूलों में आज भी बच्चों का नामांकन प्रतिशत 60 और इससे कम है। इसमें वे बच्चे शामिल हैं जो नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार न मिलने पर स्कूल नहीं जा पाते हैं और जिनके परिवार शिक्षा का आर्थिक भार नहीं उठा सकते और जो शिक्षा के बदले घरेलू व खेती के कामों में बड़ों का हाथ बँटाते हैं।
इस रिपोर्ट में यह खुलासा भी किया गया है कि प्राथमिक स्कूलों में जो बच्चे आ रहे हैं उनकी उपलब्धि की क्या हालत है।
वर्ष 2008 में आठवीं कक्षा में पढ़ने वाले लगभग 85% विद्यार्थी कक्षा 2 की ही किताब पढ़ सकते थे, जबकि 2018 में इनकी संख्या घटकर लगभग 73% रह गई है।
वर्ष 2018 के सर्वे में आठवीं कक्षा के केवल 44% बच्चे तीन अंकों में एक अंक से भाग देने का सवाल हल कर पाने में सक्षम पाए गए, जबकि वर्ष 2012 में यह आँकड़ा 48% था।
निजी स्कूलों के बच्चे बेहतर
बच्चों की शैक्षिक उपलब्धि के संदर्भ में निजी स्कूलों के बच्चे सरकारी स्कूलों के बच्चों से बेहतर हैं।
2018 के आँकड़े बताते हैं कि पाँचवीं कक्षा के ऐसे बच्चे जो कक्षा 2 की पठन दक्षता रखते हैं, का प्रतिशत सरकारी स्कूलों में 44 और निजी स्कूलों में 66 है।
इसके पक्ष में निजी स्कूलों की आधार-संरचना, अध्यापकों की निगरानी और समर्पित प्रबंधन का तर्क पर्याप्त नहीं है। यह ज़रूर है कि निजी स्कूलों के बच्चों के अभिभावक पढ़ाई का खर्च उठा सकते हैं। यानी कि उनका सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश घर पर पढ़ने-पढ़ाने में सहयोग देने वाला होता है। घर और स्कूल दोनों जगहों पर सीखने के कारण बच्चे कुशलता को अर्जित कर रहे हैं। दूसरी ओर, गाँवों के निजी स्कूल शहरी निजी स्कूलों की तरह सुविधायुक्त नहीं हैं। वे कम फीस लेते हैं और साधारण संसाधनों से युक्त हैं। सरकारी स्कूलों के बच्चों और अभिभावकों के संदर्भ में इसका अभाव है।