भारत में लोकतंत्र का क्या भविष्य है
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लोकतंत्र में प्रयुक्त 'लोक' शब्द अपने अपार विस्तार में समस्त संकीर्णताओं से मुक्त है। 'लोक’ जाति-धर्म-भाषा-क्षेत्र-वर्ग आदि समूह की संयुक्त समावेशी इकाई है, जिसमें सहअस्तित्व का उदार भाव सक्रिय रहकर 'लोक' को आधार देता है। 'लोक' में सबके प्रति सबकी सहानुभूति का होना आवश्यक है। इसी से 'लोक' एक इकाई के रूप में संगठित होकर अपनी जीवन-शक्ति अर्जित करता है। 'जिओ और जीने दो' का उदार विचार लोक-संग्रह का मार्गदर्शी सिद्धांत है और इस सिद्धांत पर आधारित 'लोक' में न्याय, समानता और शांति की प्रतिष्ठा के लिए 'लोक' ने स्वशासित 'तंत्र' के रूप में लोकतंत्र को समस्त शासन तंत्रों में श्रेष्ठ मान्य किया है।
स्वतंत्रता-प्राप्ति के साथ भारत ने लोकतांत्रिक व्यवस्था को स्वीकार किया। हमारे संविधान के प्रारंभ में प्रस्तुत पंक्ति 'हम भारत के लोग......' हमारी समावेशी प्रकृति की साक्षी है। इस 'हम' में 'सर्व’ का भाव है- किसी वर्ग, वर्ण, संप्रदाय, समूह, आदि का नहीं। यह 'हम' शब्द 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' की ओर इंगित करता है। इस 'हम' में समस्त भारतवासियों के कल्याण और उत्थान की उदार भावना समाहित है। 'सबका साथ, सबका विकास' इसका संकल्प है और इसी संकल्प की संपूर्ति में हमारी स्वतंत्रता एवं स्वायत्तता की सार्थकता है। समसामयिक संदर्भ में इस सत्य को ईमानदारी से स्वीकार करने की आवश्यकता है- 'लोक' (जनसामान्य) को भी और 'तंत्र' (नेतृत्व-प्रशासन) को भी।
देश के उदारवादी तबके के बुद्धिजीवी और प्रगतिशील लोगों के साथ साथ आमजनों का भी बहुत बड़ा तबका है जो भारत में लोकतंत्र के भविष्य (future of democracy in India) को लेकर चिंतित है। लोकतंत्र, जिसे स्वतंत्रता के 67 वर्षों में मात्र कुछ माह को छोड़कर हमारे देश के उदारशील प्रगतिवादी तबकेने, राजभारत में लोकतंत्र का भविष्यनीतिज्ञों ......