भारत में महिलाओं की स्थिति पर लेख
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पिछले हजारों सालों में समाज के अन्दर महिलाओं की स्थिति में बहुत बड़े स्तर पर बदलाव हुआ है। अगर गुज़रे चालीस-पचास सालों को ही देखे तो हमें पता चलता है की महिलाओं को पुरुषों के बराबर हक़ मिले इस पर बहुत ज्यादा काम किया गया है। पहले के ज़माने में महिलाओं के घर से बाहर निकलने पर सख्त पाबन्दी थी। वे घर की चारदीवारी के अन्दर रहने को मजबूर थी। उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य यही था की उन्हें अपने पति और बच्चों का ख्याल रखना है। महिलाओं के साथ न तो पुरुषों जैसा व्यव्हार किया जाता था और न ही उन्हें पुरुषों जैसी अहमियत दी जाती थी। अगर वेदों के समय की बात की जाए तो उस वक़्त महिलाओं की शिक्षा-दीक्षा का खास ख्याल रखा जाता था। इसके उदाहरण हम प्राचीन काल की पुस्तकों में भी देख सकते है।
अगर हम वेदों का अध्ययन करे तो उसमें हमें यह साफ़ देखने को मिलता है की उस वक़्त की औरतों को अपनी शिक्षा पूरी करने की छूट थी तथा उनका विवाह भी उन्हीं की रजामंदी से होता था। गार्गी और मैत्रयी नाम की दो महिला संतो का उदाहरण रिगवेद और उपनिषदों में दिया हुआ है। इतिहास की मानें तो महिलाओं का पतन समृतियों (मनुसमृति) के साथ शुरू हुआ। धीरे धीरे भारत में इस्लामी और ईसाई आगमन से महिलाओं से उनके हक़ छिनते चले गए। महिलाएं सामाजिक बेड़ियों में बंधकर रहने लगी जिनमें प्रमुख थी सती प्रथा, बाल—विवाह, बालश्रम, विधवाओं के पुनःविवाह पर रोक आदि।
पर्दा प्रथा की शुरुआत भारत में मुस्लिम धर्म के आने के बाद हुई। राजस्थान के राजपूत समाज द्वारा गौहर नाम के रिवाज़ का अनुगमन किया जाता था। मंदिर में जो महिलाएं थी उनका अमीर तथा प्रभावशाली व्यक्तियों द्वारा यौन उत्पीड़न किया जाता था। पर आज के समय की बात की जाए तो महिलाएं हर क्षेत्र (जैसे राजनीती, सामाजिक कार्य, तकनीकी विभाग, खेल-कूद आदि) में अपना योगदान बिना किसी डर के दे रही है। महिलायें हर जगह नेतृत्व करती दिख रही है बल्कि दूसरे शब्दों में कहा जाए तो पुरुषों से दो कदम है। हम यह तो नहीं कह सकते की महिलाओं की स्थिति में सौ फीसदी बदलाव आया है पर इतना जरुर कह सकते है की महिलाएं अब अपने अधिकारों के लिए और भी अधिक जागरूक हो गयी है।