भारत में पंचायती राज संस्थाओं के उदय एवं विकास की चर्चा कीजिए
Answers
Explanation:
पंचायती राज संस्थान (PRI) भारत में ग्रामीण स्थानीय स्वशासन की एक प्रणाली है।
स्थानीय स्वशासन का अर्थ है स्थानीय लोगों द्वारा निर्वाचित निकायों द्वारा स्थानीय मामलों का प्रबंधन।
ज़मीनी स्तर पर लोकतंत्र की स्थापना करने के लिये 73वें संविधान संशोधन अधिनियम, के माध्यम से पंचायती राज संस्थान को संवैधानिक स्थिति प्रदान की गई और उन्हें देश में ग्रामीण विकास का कार्य सौंपा गया।
अपने वर्तमान स्वरूप और संरचना में पंचायती राज संस्थान ने 27 वर्ष पूरे कर लिये हैं। लेकिन विकेंद्रीकरण को आगे बढ़ाने और ज़मीनी स्तर पर लोकतंत्र को मज़बूत करने के लिये अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है।
भारत में पंचायती राज का उद्भव
भारत में पंचायत राज के इतिहास को विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से निम्नलिखित कालक्रमों में विभाजित किया जा सकता है:
वैदिक युग: प्राचीन संस्कृत शास्त्रों में 'पंचायतन' शब्द का उल्लेख मिलता है, जिसका अर्थ है एक आध्यात्मिक व्यक्ति सहित पाँच व्यक्तियों का समूह।
धीरे-धीरे ऐसे समूहों में एक आध्यात्मिक व्यक्ति को शामिल करने की अवधारणा लुप्त हो गई।
ऋग्वेद में स्थानीय स्व-इकाइयों के रूप में सभा, समिति और विदथ का उल्लेख मिलता है।
ये स्थानीय स्तर के लोकतांत्रिक निकाय थे। राजा कुछ कार्यों और निर्णयों के संबंध में इन निकायों की स्वीकृति प्राप्त किया करते थे।
महाकाव्य युग भारत के दो महान महाकाव्य काल को इंगित करता है- रामायण और महाभारत।
रामायण के अध्ययन से संकेत मिलता है कि प्रशासन दो भागों- पुर और जनपद (अर्थात् नगर और ग्राम) में विभाजित था।
राज्य में एक जाति पंचायत भी होती थी और जाति पंचायत द्वारा निर्वाचित व्यक्ति राजा के मंत्री-परिषद का सदस्य होता था।
महाभारत के 'शांति पर्व', कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' और मनु स्मृति से भी ग्रामों के स्थानीय स्वशासन के पर्याप्त साक्ष्य प्राप्त होते हैं।
महाभारत के अनुसार, ग्राम के ऊपर 10, 20, 100 और 1,000 ग्राम समूहों की इकाइयाँ विद्यमान थीं।
प्राचीन काल: कौटिल्य के अर्थशास्त्र में ग्राम पंचायतों का उल्लेख मिलता है।
नगर को 'पुर' कहा जाता था और इसका प्रमुख 'नागरिक' होता था।
स्थानीय निकाय किसी भी राजसी हस्तक्षेप से मुक्त थे।
मौर्य तथा मौर्योत्तर काल में भी ग्राम का मुखिया वृद्धों की एक परिषद की सहायता से ग्रामीण जीवन में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता रहा।
यह प्रणाली गुप्त काल में भी बनी रही, यद्यपि नामकरण में कुछ परिवर्तन हुए; इस काल में ज़िला अधिकारी को विषयपति और ग्राम के प्रधान को ग्रामपति के रूप में जाना जाता था।
इस प्रकार, प्राचीन भारत में स्थानीय शासन की एक सुस्थापित प्रणाली विद्यमान थी जो परंपराओं और रीति-रिवाजों के एक निर्धारित रूपरेखा के आधार पर संचालित होती थी।
यहाँ यह उल्लेख करना भी महत्त्वपूर्ण है कि पंचायत के प्रमुख के रूप में यहाँ तक कि सदस्यों के रूप में भी स्त्रियों की भागीदारी का कोई संदर्भ प्राप्त नहीं होता।
मध्य काल: सल्तनत काल के दौरान दिल्ली के सुल्तानों ने अपने राज्य को प्रांतों में विभाजित किया था जिन्हें 'विलायत' कहा जाता था।
ग्राम के शासन के लिये तीन महत्त्वपूर्ण अधिकारी होते थे-
1. प्रशासन के लिये मुकद्दम
2. राजस्व संग्रह के लिये पटवारी
3. पंचों की सहायता से विवादों के समाधान के लिये चौधरी
ग्रामों को स्वशासन के संबंध में अपने अधिकार क्षेत्र के भीतर पर्याप्त शक्तियाँ प्राप्त थी।
मध्य काल में मुगल शासन के तहत जातिवाद और शासन की सामंतवादी प्रणाली ने धीरे-धीरे ग्रामीण स्वशासन को नष्ट कर दिया।
पुनः यह उल्लेखनीय है कि मध्य काल में भी स्थानीय ग्राम प्रशासन में स्त्रियों की भागीदारी का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता।