भारत में संस्कृति गतिविधियां किस प्रकार सामूहिक अपनेपन का निर्णय करने में सहायक हुई Bharat mein main Sanskriti gatividhiya ki Prakar samuhik Apne Pan ka nirnay karne mein Sahayak Hui
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Answer:
मानव मात्र की एकता के आदर्श के प्रति समर्पित इस संस्थान ने लोगों को विश्व की संस्कृतियों के समृद्ध मूल्यों से अवगत कराने तथा उन्हें यह समझाने के लिए सालों साल अथक प्रयास किए हैं कि परस्पर एक-दूसरे के दृष्टिकोण को समझना, मानना और स्वीकार करना अत्यंत आवश्यक है
Explanation:
यही वह दृष्टिकोण है जो वैश्विक स्तर पर अंतर्राष्ट्रीय समझ एवं सहमति विकसित करने और देश में राष्ट्रीय एकता की भावना को बल प्रदान करने में सर्वथा अनुकूल है। इस प्रकार, कुल मिलाकर, संस्थान का मुख्य संदेश है आपस में एक-दूसरे के दृष्टिकोण तथा विचारों का सम्मान करना तथा स्वयं की समृद्धि के लिए उन्हें एकजुट करना।
मानव जीवन में संस्कृति का महत्त्व : संस्कृति जीवन के निकट से जुड़ी है। यह कोई बाह्य वस्तु नहीं है और न ही कोई आभूषण है जिसे मनुष्य प्रयोग कर सकें। यह केवल रंगों का स्पर्श मात्र भी नहीं है। यह वह गुण है जो हमें मनुष्य बनाता है। संस्कृति के बिना मनुष्य ही नहीं रहेंगे। संस्कृति परम्पराओं से, विश्वासों से, जीवन की शैली से, आध्यात्मिक पक्ष से, भौतिक पक्ष से निरन्तर जुड़ी है। यह हमें जीवन का अर्थ, जीवन जीने का तरीका सिखाती है। मानव ही संस्कृति का निर्माता है और साथ ही संस्कृति मानव को मानव बनाती है।
संस्कृति का एक मौलिक तत्त्व है, धार्मिक विश्वास और उसकी प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति। हमें धार्मिक पहचान का सम्मान करना चाहिए, साथ ही सामयिक प्रयत्नों से भी परिचित होना चाहिए जिनसे अन्तःधार्मिक विश्वासों की बातचीत हो सके, जिन्हें प्रायः 'अन्तः सांस्कृतिक वार्तालाप' कहा जाता है। विश्व जैसे-जैसे जुड़ता चला जा रहा है, हम अधिक से अधिक वैश्विक हो रहे हैं और अधिक व्यापक वैश्विक स्तर पर जी रहे हैं। हम यह नहीं सोच सकते कि जीने का एक ही तरीका होता है और वही सत्य मार्ग है। सह-अस्तित्व की आवश्यकता ने विभिन्न संस्कृतियों और विश्वासों के सह-अस्तित्व को भी आवश्यक बना दिया है। इसलिए इससे पहले कि हम इस प्रकार की कोई गलती करें, अच्छा होगा कि हम अन्य संस्कृतियों को भी जानें और साथ ही अपनी संस्कृति को भी भली प्रकार समझें। हम दूसरी संस्कृतियों के विषय में कैसे चर्चा कर सकते हैं जब तक हम अपनी संस्कृति के मूल्यों को भी भली प्रकार न समझ लें। सत्य, शिव और सुन्दर ये तीन शाश्वत मूल्य हैं जो संस्कृति से निकट से जुड़े हैं। यह संस्कृति ही है जो हमें दर्शन और धर्म के माध्यम से सत्य के निकट लाती है। यह हमारे जीवन में कलाओं के माध्यम से सौन्दर्य प्रदान करती है और सौन्दर्यनुभूतिपरक मानव बनाती है। यह संस्कृति ही है जो हमें नैतिक मानव बनाती है और दूसरे मानवों के निकट सम्पर्क में लाती है और इसी के साथ हमें प्रेम, सहिष्णुता और शान्ति का पाठ पढ़ाती है।
संस्कृति का निर्माण : किसी देश की संस्कृति उसकी सम्पूर्ण मानसिक निधि को सूचित करती है। यह किसी खास व्यक्ति के पुरुषार्थ का फल नहीं, अपितु असंख्य ज्ञात तथा अज्ञात व्यक्तियों के भगीरथ प्रयत्न का परिणाम होती है। सब व्यक्ति अपनी सामर्थ्य और योग्यता के अनुसार संस्कृति के निर्माण में सहयोग देते हैं। संस्कृति की तुलना आस्ट्रेलिया के निकट समुद्र में पाई जाने वाली मूँगे की भीमकाय चट्टानों से की जा सकती है। मूँगे के असंख्य कीड़े अपने छोटे घर बनाकर समाप्त हो गए। फिर नए कीड़ों ने घर बनाये, उनका भी अन्त हो गया। इसके बाद उनकी अगली पीढ़ी ने भी यही किया और यह क्रम हजारों वर्ष तक निरन्तर चलता रहा। आज उन सब मूगों के नन्हे-नन्हे घरों ने परस्पर जुड़ते हुए विशाल चट्टानों का रूप धारण कर लिया है। संस्कृति का भी इसी प्रकार धीरे-धीरे निर्माण होता है और उनके निर्माण में हजारों वर्ष लगते हैं। मनुष्य विभिन्न स्थानों पर रहते हुए विशेष प्रकार के सामाजिक वातावरण, संस्थाओं, प्रथाओं, व्यवस्थाओं, धर्म, दर्शन, लिपि, भाषा तथा कलाओं का विकास करके अपनी विशिष्ट संस्कृति का निर्माण करते हैं। भारतीय संस्कृति की रचना भी इसी प्रकार हुई है।
सभ्यता, संस्कृति, समाज, देश-काल : स्कृति सामाजिक अंत:क्रियाओं एवं सामाजिक व्यवहारों के उत्प्रेरक प्रतिमानों का समुच्चय है। इस समुच्चय में ज्ञान, विज्ञान, कला, आस्था, नैतिक मूल्य एवं प्रथाएँ समाविष्ट होती हैं। संस्कृति भौतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक तथा आध्यात्मिक अभ्युदय के उपयुक्त मनुष्य की श्रेष्ठ साधनाओं और सम्यक् चेष्टाओं की समष्टिगत अभिव्यक्ति है। यह मनुष्य के वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन के स्वरूप का निर्माण, निर्देशन, नियमन और नियंत्रण करती है। अत: संस्कृति मनुष्य की जीवनपद्धति, वैचारिक दर्शन एवं सामाजिक क्रियाकलाप में उसे समष्टिवादी दृष्टिकोण की अभिव्यंजना है। इसमें प्रतीकों द्वारा अर्जित तथा सप्रेषित मानवव्यवहारों के सुनिश्चित प्रतिमान संनिहित होते हैं। संस्कृति का अपरिहार्य अभ्यंतर कालक्रम में प्रादुर्भूत एवं संचित परंपरागत विचारों और तत्संबद्ध मूल्यों द्वारा निर्मित होता है। इसका एक पक्ष मानव व्यवहार के निर्धारण और दूसरा पक्ष कतिपय विधिविहित व्यवहारों की प्रामाणिकता तथा औचित्यप्रतिपादन से संबद्ध होता है। प्रत्येक संस्कृति में चयनक्षमता एवं वरणात्मकता के सामान्य सिद्धांतों का संनिवेश होता है, जिनके माध्यम से सांस्कृति आधेय के नाना रूप क्षेत्रों में मानवव्यवहार के प्रतिमान सामान्यीकरण द्वारा अवकरणीय होते हैं।
सांस्कृतिक मान, प्रथाओं के सामान्यीकृत एवं सुसंगठित समवाय के रूप में स्थिरता की ओर उन्मुख होते हैं, यद्यपि संस्कृति के विभिन्न तत्वों में परिवर्तन की प्रक्रिया शाश्वत चलती रहती है। किसी अवयवविशेष में परिर्वन सांस्कृतिक प्रतिमानों के अनुरूप स्वीकरण एवं अस्वीकरण का परिणाम होता है। सांस्कृतिक प्रतिमान स्वयं भी परिवर्तनशील होते हैं। समाज की परिस्थिति में परिवर्तन की शाश्वत प्रक्रिया प्रतिमानों को प्रभावित करती है। सामाजिक विकास की प्रक्रिया सांस्कृतिक प्रतिमानों के परिवर्तन की प्रक्रिया है।