भारत में समाजशास्त्र के उद्भव और विकास पर एक लेख लिखिए
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भारत में समाजशास्त्र के बारे में प्राचीन वर्णन कोटिल्य के अर्थशास्त्र ग्रंथ में मिलता है।
एक विषय के रूप में समाजशास्त्र का उद्भव फ्रांसीसी क्रांति के बाद में हुआ है।
आगस्त काम्टे को समाज विज्ञान का पिता माना जाता है। जर्मन मैक्स वेबर तथा कार्ल मार्क्स ने समाजशास्त्र के विकास में अपना योगदान दिया।
भारत में समाजशास्त्र के विकास को मुख्यतः तीन काल खंडों में बांटा जा सकता है भारत में समाजशास्त्र के विकास को मुख्यतः तीन काल खंडों में बांटा जा सकता है-
1769 से 1900-समाजशास्त्र की स्थापना❤
विलियम जोंस द्वारा 1774 में एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल की स्थापना।
1871 में पहली अखिल भारतीय जनगणना।
मैक्स मूलर द्वारा भारतीय ग्रंथों का जर्मन भाषा में अनुवाद।
1901 से 1950- विश्वविद्यालय में विषय के रूप में अध्ययन।❤
1914 में मुंबई विश्वविद्यालय में प्रथम बार समाजशास्त्र विभाग की स्थापना की गई।
1917 में कोलकाता तथा 1921 में लखनऊ में समाजशास्त्र विभाग स्थापित हुए।
लखनऊ में राधाकमल मुखर्जी ने समाजशास्त्र का नेतृत्व किया।
1928 में मैसूर में डिग्री स्तर पर से मान्यता दी गई।
1939 में पुणे में श्रीमती इरावती कर्वे की अध्यक्षता में इसकी शुरुआत हुई।
1951 के बाद का समय- शोध में वृद्धि❤
स्वतंत्रता से पूर्व जा भारतीय विद्वान केवल ब्रिटिश विद्वानों के संपर्क में थे वही स्वतंत्रता के पश्चात वे संयुक्त राज्य अमेरिका के अपने समकक्षों के साथ मेलजोल बढ़ाने लगे।
इसके फलस्वरुप प्रकाशन तथा क्षेत्र में शोध कार्य में वृद्धि हुई।
1969 में इंडियन काउंसिल ऑफ सोशल साइंस रिसर्च की स्थापना हुई।
भारत में योजनाबद्ध विकास की शुरुआत में समाजशास्त्र को बढ़ावा दिया।
धीरे-धीरे समाज शास्त्रियों को योजना तथा विकास के कार्यों में शामिल किया जाने लगा।
अब ग्रामीण जन जीवन से संबंधित शोध कार्य में होने लगे थे।
निजी क्षेत्र में कई शोध संस्थानों की स्थापना हुई जिनमें टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, आगरा तथा मुंबई JK इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशियोलॉजी एंड सोशल वर्क्स, लखनऊ प्रमुख है।
भारत में समाजशास्त्र की प्रवृत्तियां-❤
पश्चिमी सिद्धांतों के आधार पर विकास-❤
भारत के अधिकतर विद्वान पश्चिम में सिद्धांतों के आधार पर ही भारत में समाजशास्त्र का विकास चाहते थे।
मजूमदार, इरावती कर्वे जैसे विद्वानों ने भारत की सामाजिक संस्थाओं परिवार, विवाह, समाज वर्ग आदि का तुलनात्मक अध्ययन पश्चिमी सभ्यता के साथ किया है।
डॉक्टर एस सी दुबे तथा मजूमदार आदि ने गांवों के अध्ययन में पश्चिमी सिद्धांतों को महत्व दिया है।
अर्थशास्त्री विद्वान राधाकमल मुखर्जी तथा DP मुखर्जी का सामाजिक आर्थिकी के संबंध में किया गया शोध प्रारंभिक रूप से पश्चिमी सिद्धांतों पर ही आधारित था।
भारतीय सिद्धांतों के आधार पर विकास-❤
भारतीय समाज पश्चिमी सभ्यता से काफी भिन्न है अतः कई विद्वानों ने समाजशास्त्र का विकास भारतीय पद्धति से करने के लिए जोर दिया जो कि पूर्णतया भारतीयों पर केंद्रित हो।
कुमार स्वामी तथा भगवान दास ऐसे विचारकों में प्रमुख हैं। इन्होंने तर्क के आधार पर भारतीय सिद्धांतों के विकास पर जोर दिया।
भारतीय तथा पश्चिमी सिद्धांतों के समन्वय के आधार पर विकास-❤
डॉ आर एल सक्सेना, प्रोफेसर योगेंद्र सिंह, डॉ राधाकमल मुखर्जी आदि ने भारत में समाजशास्त्र के विकास के लिए भारतीय तथा पश्चिमी दोनों सिद्धांतों के समन्वय के आधार पर कार्य करने की बात कही है।