भारत में उपनिवेशवाद के विभिन्न चरणों की रूपरेखा प्रस्तुत कीजिए
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भारत में उपनिवेशवाद के तीन प्रमुख चरण रहे हैं। यह चरण है...
- वाणिज्यिक चरण (1757 से से 1813 तक।
- औद्योगिक मुक्त व्यापार चरण (1813 से 1858 तक)
- वित्तीय पूंजीवाद (1858 से 1947 तक)
प्रथम चरण...
उपनिवेशवाद के प्रथम चरण में ब्रिटिशों का प्रमुख उद्देश्य भारत के व्यापार पर एकाधिकार स्थापित करना था ताकि अपने राजनीतिक प्रभाव को स्थापित कर अधिक से अधिक राजस्व प्राप्त कर सकें। इस काल में ब्रिटिशों ने कम मूल्यों पर भारतीय वस्तुओं को खरीद कर यूरोप में उन्हें अधिक से अधिक मूल्य पर बेचा और अत्याधिक लाभ कमाया। इस चरण में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के अलावा भारत में फ्रांस व पुर्तगाल आदि के रूप में अन्य कई उपनिवेशवाद थे, लेकिन ये उपनिवेशवाद ब्रिटिशों जितने विस्तारित नही हो पाये थे। इसलिय ब्रिटिशों ने आपसी प्रतिद्वंद्विता में अपने यूरोपीय प्रतिद्वंद्वियों को हरसंभव तरीके से बाहर निकालने का प्रयत्न किया। ब्रिटिश ने भारतीय प्रशासन, परंपरागत न्याय कानून और यातायात तथा औद्योगिकी व्यवस्था में कुछ विशेष परिवर्तन किए बिना ही अधिक से अधिक पूंजी प्राप्त करने का लक्ष्य रखा था। ब्रिटिशों की आर्थिक नीति के कारण भारत के पारंपरिक उद्योग-धंधे नष्ट हो चुके थे और उनमें बेहद कमी आ चुकी थी। भारतीय एकमात्र कृषि पर ही निर्भर रह गए थे। इस चरण में ब्रिटिशों का मुख्य उद्देश्य अधिक से अधिक धन लूटना था सो उन्होंने किया।
द्वितीय चरण...
उपनिवेशवाद के द्वितीय चरण में इंग्लैंड और यूरोप में होने वाली औद्योगिक क्रांति को ध्यान में रखकर अंग्रेजों ने भारत में नई नीतियां बनानी आरंभ की और यह चरण भारत के अधिक से अधिक शोषण के रूप में सामने आया। अंग्रेजों ने अधिक से अधिक शोषण करने के तरीके अपनाने शुरू कर दिए। इस अवधि में यूरोप में अनेक वैज्ञानिक आविष्कार हुए थे और नए-नए उद्योगों की स्थापना होने लगी थी। ऐसी स्थिति में उद्योगों के लिए कच्चे माल की आवश्यकता महसूस हुई। कारखानों में जो माल तैयार होना था उसकी खपत के लिए भी एक बड़े बाजार की आवश्यकता थी। भारत इन दोनों आवश्यकताओं की पूर्ति के रूप साधन के रूप में उभरा। कच्चे माल की अधिक से अधिक आपूर्ति भारत से की गई तथा भारत को ही इस तैयार माल की खपत के लिये एक नए बाजार के रूप में प्रस्तुत किया गया। भारतीयों का ही कच्चा माल विदेशों में तैयार माल बनकर भारतीयों को ही बहुत ज्यादा मूल्य पर खरीदना पड़ता था। इस तरह भारत कच्चे माल का निर्यातक तथा तैयार माल का आयातक बनकर रह गया।
तृतीय चरण...
उपनिवेशवाद का यह तृतीय चरण पहले दो चरणों का विस्तार ही था। अंग्रेजों का एकाधिकार और उनके शोषण करने की नीति अनवरत जारी रही थी। लेकिन उनकी कार्यशैली में थोड़ा परिवर्तन आने लगा था। भारतीयों के स्वतंत्रता के आंदोलन मुखर होने लगे थे। अंग्रेजों को महसूस होने लगा था कि उनके पांव अब अधिक समय तक भारतीय जमीन पर नहीं टिक सकते इसलिए उन्होंने तेज गति से जितना अधिक संभव हो भारतीय अर्थव्यवस्था का दोहन और शोषण करना आरंभ कर दिया। भारतीयों की अर्थव्यवस्था पूरी तरह कमजोर पड़ती गई और ब्रिटेन पूंजीवाद के एक नए केंद्र के रूप में मजबूत होता चला गया।
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