Social Sciences, asked by chandprakash5511, 8 months ago

भारत में वन विद्रोह के बारे में संक्षेप में लिखो​

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Answered by prasadganga121
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बस्तर में आदिवासियों ने ब्रिटिश शासन के विरूद्ध 1859 में साल के वृक्षों को बचाने के लिये व्रिदोह किया था जिसे कोई विद्रोह के नाम से जाना जाता है। बस्तर में आदिवासी जनजीवन पूर्णतः वनो एवं उससे मिलने वाले वनोपज पर ही आधारित है। वन और आदिवासियों का अटूट गठबंधन हजारो साल पुराना है। ... बस्तर को साल वनों का द्वीप कहा जाता है।

Answered by Anonymous
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वन नीति और वनों का प्रबंधन, लम्बे समय से बहस, विवाद और टकराव का विषय रहे हैं. अंग्रेजों द्वारा 19वीं सदी में वन विभाग की स्थापना करने और वनों से सम्बंधित कानून बनाने के समय से ही दो महत्वपूर्ण पहलुओं को नज़रअंदाज़ किया गया. पहला, आदिवासियों और अन्य देशज समुदायों द्वारा वनों के संरक्षण और उनके धारणीय उपयोग के लिए सदियों पुरानी सुस्थापित पारंपरिक प्रणालियाँ और वनों की पर्यावर्णीय, सामाजिक और सांस्कृतिक भूमिका।

वन विभाग की स्थापना से पहले, अर्थात 1864 से पूर्व, जो प्रमुख विद्रोह हुए उन्हें केवल किसानों का अंग्रेजों या ज़मींदारों या साहूकारों के विरुद्ध करों से जुड़े मुद्दों को लेकर विद्रोह नहीं कहा जा सकता। उन्हें हमें बाहरी शक्तियों द्वारा आदिवासियों के वासस्थलों, जो मुख्यतः जंगल और पहाड़ थे, में जबरदस्ती घुसने के प्रयासों के संदर्भ में समझना होगा। इन विद्रोहों और आंदोलनों के इतिहास और पृष्ठभूमि के गहराई से अध्ययन से हमें यह पता लगेगा कि सिर्फ भूमि और जंगलों के आर्थिक और सांस्कृतिक महत्व को नज़रअंदाज़ करते हुए लोगों को इन संसाधनों के स्वामित्व से वंचित करना इनका कारण नहीं थे। इनके पीछे था वह अघोषित सांस्कृतिक युद्ध जिसमें एक ओर थे आदिवासी तो दूसरी ओर गैर-आदिवासी निहित स्वार्थी तत्त्व, जिन्हें सरकार का समर्थन और सहयोग हासिल था. इन विद्रोहों में प्रमुख थे, तिलका मांझी के नेतृत्व में संथाल विद्रोह (1770-85), हल्बा डोंगर (हल्बा), बस्तर (1774-79), महादेव कोली, महाराष्ट्र (1784-85), तमर, छोटानागपुर (1781; 1894-95), पंचेट एस्टेट सेल (1798), कुरुचि, वायनाड (1812), सिंघ्पो, आसाम (1825; 28; 43; 47), कोल विद्रोह (हो और मुंडा सहित) (1832), खोंड, ओडिशा (1850), संथाल, छोटानागपुर (1855), सोनाखान, छत्तीसगढ़ (1856-57), भील, गुजरात (1857-58), अंडमानीज़, अंडमान (1859), लुशाई, त्रिपुरा (1860), सिंतेंग, जैंतिया हिल्स (1860-62), जुआंग, ओडिशा (1861) और कोय, आंध्रप्रदेश (1862)।  

चार मुर्मू भाईयों, सिदो, कान्हु, चंद और भैरव के नेतृत्व में हूल विद्रोह पहाड़ी और मैदानी इलाकों में हुआ था। यद्यपि ऐसे कहा जाता है कि इस विद्रोह का कारण महाजनों और ज़मींदारों की ज्यादतियां थीं, परन्तु शायद आदिवासियों को यह भी महसूस हो रहा होगा कि उनकी ज़मीनों और जंगलों पर कब्ज़ा किया जा रहा है। सन् 1857 का सोनाखान विद्रोह, इसी वर्ष हुए एक और बहुचर्चित विद्रोह से कुछ समय पहले हुआ था। इसका नेतृत्व आदिवासी राजा नारायण सिंह ने किया था और इस विद्रोह के मुद्दे भी सन् 1855 के संथाल विद्रोह से मिलते-जुलते थे। सोनाखान एक वनीय इलाका है और इसके पास बरनावापारा में घने जंगल हैं। सन् 1852 में बम्बई और उसके आसपास के इलाकों में रहने वाले कोल और अन्य वन-आधारित समुदायों में बड़े पैमाने पर पेड़ों को काटने को लेकर भारी गुस्सा था, परन्तु वह विद्रोह में नहीं बदल सका।  

सन् 1864 के बाद से, ब्रिटिश भारत में केन्द्रीयकृत राजनैतिक-प्रशासनिक व्यवस्था लागू हो गई और इसके साथ ही, वनों और वनवासियों के बीच विभाजक रेखा खींच दी गई। औपनिवेशिक सरकार ने वनों पर अपने स्वामित्व को क़ानूनी जामा पहना दिया। इसका सीधा सा मतलब यह था कि वनों में रहने वाले समुदाय गैरकानूनी कब्जाधारी हैं और उन्होंने सरकार की भूमि पर अतिक्रमण किया हुआ है। अंग्रेज़ अधिकारियों. ज़मींदारों, जागीरदारों आदि को छोड़ कर अन्यों के शिकार करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया।  

इस दौर में अनेक आदिवासी विद्रोह हुए। जब भी आदिवासियों के जीवन में बेजा हस्तक्षेप करने की कोशिश हुई, जब भी उन्हें उनकी भूमि या जंगलों से बेदखल करने के प्रयास हुए, जब भी उनकी पारंपरिक संस्कृति, रीति-रिवाजों, परम्पराओं, नागरिक अधिकारों या न्याय व्यवस्था का उल्लंघन या तिरस्कार किया गया, उन्होंने इसका तीव्र, त्वरित और आक्रामक प्रतिरोध किया। इस दौर में हुए देशज लोगों के विद्रोहों में शामिल थे धनबाद में संथालों का विद्रोह (1869-70), उत्तरपूर्व में नागाओं का (1879), तम्मनडोरा के नेतृत्व में ओडिशा के मलकानगिरी में कोयायों का (1880), अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में सेंटिनेलियों का (1883), छोटानागपुर में मुंडाओं का (1889), लुशाईयों का (1892), बिरसा मुंडा के नेतृत्व में मुंडाओं का (1895), बस्तर के आदिवासियों का (भूमकाल विद्रोह और गुंडा धुर के नेतृत्व में एक अन्य विद्रोह, 1910-11), गोविन्द गुरूके नेतृत्व में संप सभा और गुजरात व राजस्थान के मानगढ़ पहाड़ियों में भीलों का (1913-16), मणिपुर में कुकियों का (1917-19), रम्पा में कोयायों का (1922), उत्तरपूर्व में नागाओं का (1932), तेलंगाना के आदिलाबाद में गोंड और कोलम जनजातियों का (1941) और लक्ष्मण नायक के नेतृत्व में कोरापुट, ओडिशा में आदिवासियों का विद्रोह (1942).  

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