भारतीय संविधान द्वारा अस्पृश्यता का उन्मूलन क्यो किया गया है१
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अस्पृश्यता का शाब्दिक अर्थ है - न छूना। इसे सामान्य भाषा में 'छूआ-छूत' की समस्या भी कहते हैं। अस्पृश्यता का अर्थ है किसी वय्क्ति या समूह के सभी लोगों के शरीर को सीधे छूने से बचना या रोकना। ये मान्यता है कि अस्पृश्य या अछूत लोगों से छूने, यहाँ तक कि उनकी परछाई भी पड़ने से उच्च जाति के लोग 'अशुद्ध' हो जाते है और अपनी शुद्धता वापस पाने के लिये उन्हें पवित्र गंगा-जल में स्नान करना पड़ता है। भारत में अस्पृश्यता की प्रथा को अनुच्छेद १७ के अंतर्गत एक दंडनीय अपराध घोषित कर किया गया है। अनुच्छेद १७ निम्नलिखित है-
'अस्पृश्यता' का अन्त किया जाता है और उसका किसी भी रूप में आचरण निषिद्ध किया जाता है। 'अस्पृश्यता' से उपजी किसी निर्योग्यता को लागू करना अपराध होगा जो विधि के अनुसार दण्डनीय होगा।
भारतीय संस्कृति का मूलमंत्र 'मानव-जाति से प्यार' ऊँच-नीच की भावना रूपी हवा के झोंके से यत्र-तत्र बिखर गया। ऊँच-नीच का भाव यह रोग है, जो समाज में धीरे धीरे पनपता है और सुसभ्य एवं सुसंस्कृत समाज की नींव को हिला देता है। परिणामस्वरूप मानव-समाज के समूल नष्ट होने की आशंका रहती है। अतः अस्पृश्यता मानव-समाज के लिए एक भीषण कलंक है। अस्पृश्यता की उत्पत्ति और उसकी ऐतिहासिकता पर अब भी बहस होती है। भीमराव आम्बेडकर का मानना था कि अस्पृश्यता कम से कम 400 ई. से है[1] आज संसार के प्रत्येक क्षेत्र में चाहे वह राजनीतिक हो अथवा आर्थिक, धार्मिक हो या सामाजिक, सर्वत्र अस्पृश्यता के दर्शन किए जा सकते हैं। अमेरिका, इंग्लैंड, जापान आदि यद्यपि वैज्ञानिक दृष्तिकोण से विकसित और संपन्न देश हैं किंतु अस्पृश्यता के रोग में वे भी ग्रसित हैं।[कृपया उद्धरण जोड़ें] अमेरिका जैसे महान राष्ट्र में काले एवं गोरें लोगों का भेदभाव आज भी बना हुआ है।