भारतीय समाज के शास्त्रीय दृष्टिकोण की विवेचना कीजिए
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मणींद्र नाथ ठाकुर
एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू
भारतीय समाज दुनिया के सबसे जटिल समाजों में एक है. इसमें कई धर्म, जाति, भाषा, नस्ल के लोग बिलकुल अलग-अलग तरह के भौगोलिक भू-भाग में रहते हैं. उनकी संस्कृतियां अलग हैं, लोक-व्यवहार अलग हैं.
इतनी विभिन्नता वाले समाज को कैसे समझा जाये, यह एक जटिल सवाल है. यदि समझने का मकसद एक बेहतर समाज बनाने की कल्पना भी हो, तो प्रश्न और भी पेचीदा हो जाता है. वर्तमान स्वरूप में हमारे विश्वविद्यालयों में जिस समाजशास्त्र की पढ़ाई होती है, उससे सामाजिक परिवर्तन का शायद ही कोई वास्ता है. आम तौर पर हम पश्चिम से लिये हुए सिद्धांतों के माध्यम से ही अपने समाज को समझने की कोशिश करते हैं.
इस बात पर भले ही बुद्धिजीवियों में सहमती नहीं है, खासकर अंग्रेजीदां समाजशास्त्री इससे असहमत हैं कि समाज के अध्ययन के लिए भारतीय ज्ञान परंपरा का कोई महत्व हो सकता है. लेकिन, सवाल है कि क्या यदि हमें पश्चिमी समाजशास्त्र का ज्ञान नहीं होता, तो हम अपने समाज को समझ ही नहीं पाते? इसके अलावा यह भी सच है कि प्राकृतिक विज्ञान के तर्ज पर सामाजिक विज्ञान की कल्पना करना मुश्किल है. क्या ऐसा भी हो सकता है कि अलग-अलग संस्कृतियों में समाज को समझने के प्रचलित तरीकों के बीच संवाद करवाया जाये और एक बेहतर समझ की ओर बढ़ा जाये?
इन सवालों को लेकर भारत के बहुत से समाजशास्त्री सोचते रहे हैं. उनमें से कुछ लोगों से मैंने पूछने की कोशिश की कि आखिर अपनी इस समस्या पर खुल कर बहस क्यों नहीं करते हैं?
क्यों नहीं अपने पश्चिमी मित्रों से इस विषय पर बराबरीका संवाद स्थापित करते हैं? आम तौर पर उनके उत्तरों ने मुझे बेहद निराश किया है. ज्यादातर लोग यह मानते हैं कि इस तरह के संवाद को पश्चिमी विद्वतजगत कोई तरजीह नहीं देता है. भारतीय विद्वान भी प्रकाशन, पारितोषिक, और मान्यता प्राप्त करने के लिए उन पर निर्भर रहते हैं. उनका मुख्य उद्देश्य अपने ज्ञान से समाज को प्रभावित करना और उन आकाओं को प्रभावित करना ज्यादा रहता है.
समाजशास्त्रियों के एक समूह ने साठ के दशक में यह सवाल साहस के साथ उठाया था. लेकिन, उनमें से ज्यादातर लोगों ने इसे अनौपचारिक बातचीत तक ही सीमित रखा था. केवल कुछ ही लोगों ने इसे पूरी तरह अंगीकार कर लिया था. इनमें से एक समाजशास्त्री थे पटना विश्वविद्यालय के हेतुकर झा. हाल में उनसे मेरी मुलाकात तब हुई थी, जब वे लगभग मृत्यु शैय्या पर थे. इस मुलाकात में जो बातें उनसे हुईं, उससे इस तरह के विद्वानों की चिंता समझ में आती है.
बार-बार यही कहते रहे कि बहुत काम बाकी रह गया है, अब मुझसे और कुछ नहीं हो पायेगा. लोग कहते हैं कि उनका व्यक्तिगत पुस्तकालय अपने-आप में एक शोध संस्थान है. उसमें न केवल किताबें हैं, बल्कि बिहार के समाज पर जमा किये गये अनेकों शोध सामग्रियों का खजाना है. गांव-गांव घूमकर उन्होंने जो नोट्स बनाये थे, उसे भी संभाल कर रखा है.
बिहार की ज्ञान परंपराओं के बारे में इन्होंने मौलिक शोध सामग्रियों को जुटाया है. बहुत सी कहानियां-किस्से औरलोकोक्तियों के माध्यम से भी बिखरे तारों को जोड़कर समाज को समझने का उनका प्रयास एक नये तरह के समाजशास्त्र की ओर इशारा करता है.
इस छोटी सी मुलाकात में भारतीय दर्शन और समाजशास्त्र के एक नये दृष्टिकोण की ओर मेरा ध्यान आकर्षित किया. उनका कहना था कि भारतीय समाज में शास्त्रीय ज्ञान से ज्यादा महत्वपूर्ण लौकिक ज्ञान रहा है. सही और गलत के निर्णय का आधार शास्त्र से ज्यादा हमारे विवेक को होना चाहिए. ज्ञान का उद्देश्य मनुष्य को दुखों से मुक्ति दिलाना होना चाहिए.
उनकी ये बातें शायद आधुनिक समाजशास्त्रियों को अनुपयोगी लगे, लेकिन मुझे बेहद महत्वपूर्ण लगीं. जो लोग भारतीय दर्शन से परिचित हैं, उन्हें मालूम है कि इसमें मनुष्य को दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से मुक्त करना ही इनका उद्देश्य है. इसमें यह बात नयी जरूर थी कि एक समाजशास्त्री मुझसे यह कह रहा था. हालांकि, यह ज्ञान उनके ग्रामीण परंपरा का अंश है.
मधुबनी के सरिसब पाही गांव में उनका जन्म हुआ था, जिसे दार्शनिकों का गांव कहा जाता है. यहीं के आयाची मिश्र नामक चौदहवीं शताब्दी के विद्वान की कहानी बहुत प्रसिद्ध है. किसी से कुछ नहीं मांगने के प्रण के चलते उन्हें आयाची कहा जाता था. उनकी पत्नी ने अपने बेटे शंकर को शिव की पूजा के लिए जल लेकर देवघर जाने को कहा था. रास्ते में उसे एक गधा दिखा, जो पानी के लिए बेचैन था. शंकर ने गंगाजल उसे पिला दिया और वापस घर आ गया. मां तो नाराज हुई, लेकिन पिता ने इस काम को सबसे बड़ी भक्ति बताया. इसी तरह की एक और कहानी है. पारंपरिक तौर पर गांव में एक दलित महिला प्रसव में सहायता करती थी.