भारतीय समाज
में
गृहस्थ आश्रम की दो विशेषताओं की विवेचना करें।
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प्राचीन काल में व्यक्तिगत व्यवस्था के दो स्तंभ थे - पुरुषार्थ और आश्रम। सामाजिक प्रकृति-गुण, कर्म और स्वभाव-के आधार पर वर्गीकरण चार वर्णो में हुआ था। व्यक्तिगत संस्कार के लिए उसके जीवन का विभाजन चार आश्रमों में किया गया था। ये चार आश्रम थे- (१) ब्रह्मचर्य, (२) गार्हस्थ्य, (३) वानप्रस्थ और (४) संन्यास।
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गृहस्थ आश्रम 25 से 50 वर्ष की आयु के लिए निर्धारित है, जिसमें धर्म, अर्थ और काम की शिक्षा के बाद विवाह कर पति-पत्नी धार्मिक जीवन व्यतीत करते हुए काम का सुख लेते हैं। परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करते हैं। गृहस्थ काल में व्यक्ति सभी तरह के भोग को भोगकर परिपक्व हो जाता है।
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