भारतीय समाज में जाति व्यवस्था के बदलते पहलुओं की चर्चा
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भारतीय समाज की जाति व्यवस्था एक जटिल एवं सप्रभावी विशिष्टतता है। यद्यपि इसकि उत्पत्ति प्रारंभिक समाजिक व्यवस्था में दृष्टिगोचर नहीं होता तथापि यह सामाजिक व्यवस्था के विकास के साथ हीं अपने वास्तविक स्वरूप; जन्म के आधर परद्ध उदित होता गया। प्रारम्भिक समाज में खास कर प्रागैतिहासिक एवं आद्य ऐतिहासिक काल में इसके जाति व्सवस्था का कोइ प्रमाण नहीं मिलता क्योंकि तब समाज कबिलाइ समाज थी। )ग्वैदिक काल; 1500-1000 ई. पू.द्ध में वर्ण व्यवस्था का उल्लेख )ग्वेद के 10वें मण्डल में मिलता है।1 जहाँ विराट पुरूष के मुख से ब्राहम्ण, बाहु से क्षत्रिय, जांघ से वैश्य तथा पद से शूद का उत्पन्न बताया गया है। इस काल में व्यक्तियों का वर्ण जन्म के आधर पर न होकर कर्म के आधर पर था। लेकिन कलांतर में बड़े राज्यों के उदय के साथ हीं वर्ण व्यवस्था जटिल होती चली गई, अब वर्ण कर्म के आधर पर न होकर जन्म के आधर पर माना जाने लगा तथा हिन्दू समाज अनेक समूहों में विभक्त हो गया और यह जाति-व्यवस्था के स्वरूप में परिवर्तित हो गया। इन जातियों का रहन-सहन, स्तर, व्यवहार और आचरण में सम्यक अंतर है इस संस्थाओ में अनेकानेक निषेध, प्रतिबंध, कठोरता और जटिलताएँ है। किन्तु पिफर भी इस संस्था का तारतम्य और सौष्ठव बराबर बना रहा है। यद्यपि इसके विकसित होने
‘जाति’ शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की ‘जन’ धतु से मानी जाती है, जिसका अर्थ, प्रजाति, जन्म अथवा भेद से लिया जा सकता है। अंग्रेजी में जाति के लिए ‘कास्ट’ शब्द का व्यवहार किया जाता है। यह कास्ट शब्द पुर्तगाली शब्द कास्टा से बना है जिसका अर्थ नस्ल, प्रजाति और जन्म है। इसके साथ हीं ‘कास्ट’ को लैटिन शब्द ‘कास्टस’ से भी व्युत्पन्न हुआ बताया जाता है। वस्तुतः इसका संबंध् प्रजातीय अथवा जन्मगत आधर पर स्थित व्यवस्था से माना जा सकता है। आध्ुनिक समाजशास्त्रिायों ने भारतीय जाति-प्रथा पर विभिन्न दृष्टियों से विचार किया है तथा यह बताया है कि जाति-प्रथा जन्म से प्रभावित और वर्गगत ढ़ाचे पर आधरित ऐसी प्रथा है जिसमें आव(ता भी है और गतिशीलता भी है। भारतीय समाज की जाति व्यवस्था परम्परागत रूप मंे वंशानुगत होती चली गई। जो विभिन्न विचारों के साथ परस्पर विरोध्ी अनेक गुटों में विभाजित होकर वंशानुगत होती गई। और संस्तरणे के आधर पर क्रमागत बन गई। इसमें रक्त संकरता अज्ञैर व्यवसाय परिवर्तन नहीं गृहीत किये जाते। साथ हीं इसमें नये सदस्यों को भी नहीं स्वीकार किया जाता।3 इस स्वरूप के अन्तर्गत जाति-प्रथा के तीन प्रमुख तत्वों का दिग्दर्शन होता है पहला तो यह है कि जाति व्यवस्था के विभिन्न जातियाँ एक दूसरे का विरोध्ी होती है। जिसके कारण वे अलग-अलग बनी रहती है। दूसरा यह कि इसमें जन्म को प्रधनता देते हुए व्यवसाय, रक्त, विवाह आदि की अपनी विशेषता परिलक्षित की जाती है जिससे प्रत्येक जाति एक दूसरे से पृथक रहती है। तीसरा यह कि ये जातियाँ से ग्रस्त रहती है।
ऐसी स्थिति में जाति को एक सामाजिक समूह के रूप में स्वीकार किया जा सकता है तथा इसकी दो विशेषताएँ मानी जा सकती है एक तो यह कि जाति की सदस्यता उन्हीं व्यक्तियों तक सीमित रहती है। जिसमें उसका जन्म होता है और दूसरा यह कि इसके सदस्य अनिवार्य सामाजिक नियम के कारण दूसरे समूह में विवाह करने से अवरू( कर दिये जाते हैं।4 ऐसी विशिष्टताएँ भारतीय जति व्यवस्था में विद्यमान थी। और यह आज भी प्रचलित है। भारतीय समाज के अन्तर्गत निवास करने वाली विभिन्न जातियों की अपनी कतिपय विशेषताएँ हैं इन जातियों का विकास विभिन्न जाति-समूहों के रूप में जन्म के आधर पर हुआ, जिनका अपना स्वतंत्रा विकाशील जीवन, भिन्न-भिन्न मान्यताएँ और अपनी पृथक संस्कृति थी। अतः जाति-प्रथा की निम्नलिखित कुछ विशेषताएँ हैं-
;1द्ध किसी व्यक्ति की जाति उसके जन्म से निर्धरित होती है।
;2द्ध साधरणतया एक जाति के व्यक्ति अपनी हीं जाति में विवाह करते थे।
;3द्ध प्रत्येक जाति के लोग समाज के कुछ सीमित क्षेत्रा में हीं खाद्य और पेय का संबंध् रखते हैं।
;4द्ध प्रत्येक जाति के लोग कुछ परंपरागत व्यवसायों को हीं करते हैं।
;5द्ध समाज के अंदर उच-नीच के क्रम से प्रत्येक जाति पूर्व निश्चित है।
;6द्ध समाज प्रत्येक जाति को कुछ नागरिक या धर्मिक अध्किारों से वंचित करता है जैसे कि कुआं पर चढ़ने या मंदिर में प्रवेश पर प्रतिबंध्।
;7द्ध प्रत्येक जाति के नियम है। उनका संबंध् पारिवारिक नियमों के उल्लंघन से है।
;8द्ध जाति की सम्पूर्ण प्रतिष्ठा ब्राहम्णों की प्रतिष्ठा पर निर्भर करती है।5
ये सभी विशेषताएँ सब जातियों में समान रूप से नहीं मिलती। जैसे कि अध्कितर ब्राहम्ण और क्षत्रियों जातियों में पंचायत और मुखिया नहीं पाये जाते।
भारतीय समाज में जाति निरंतर प्रवाहमान रहा। सिपर्फ उसमें जातियों की संख्या, उपजातियाँ की संख्या बढ़ती गई। खास कर तब जब बडे़-बड़े राज्यों का उदय हुआ जनसंख्या बढ़ी, अनेक आर्य एवं आर्येत्तर जातियाँ भारतीय समाज में प्रवेश की। अनेक व्यवसाय पर जातियों का उदय हुआ, कर्मकार, लोहार, बढ़ई, चित्राकार, कलाकार। इन जातियों की संख्या बढ़ी और संगठित होकर एक शक्तिशाली स्वरूप धरण कर ली। वैदिक साहित्य में जाति शब्द का उल्लेख नहीं मिलता है किंतु ऐसे वर्गो के नाम मिलते हैं जो परवर्ती काल में जातियाँ बन गई जैसे कि उग्र, क्षत्राृ, सूत, पौलकस, चांडाल, आयोगव पंचाल और वैदेह आदि। उग्र शब्द )ग्वेद में शक्तिशाली पुरूष के अर्थ में वृहदारण्यक उपनिषद में प्रशासनिक अध्किारी के अर्थ में और वेदोत्तर काल के साहित्य में एक जाति के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। वृहदारण्यक उपनिषद में पौल्कस का उल्लेख चांडाल के साथ हुआ है। उक्त विवेचना से स्पष्ट है कि वैदिक काल में ऐसे कुछ तथ्य विद्यमान थे जिनसे परवर्ती काल में जातियों की उत्पत्ति हुई। डाॅ0 काणे का विचार है कि ब्राहम्ण ग्रंथो के रचनाकाल में हीं ब्राहम्ण, क्षत्रिय, वैश्य जन्म के आधर पर हीं अपना वर्गीकरण कर चुके थे।
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निम्न में से कौन सा कारक भारतीय जाति व्यवस्था में परिवर्तन के लिए उनकी आती है