भारतीय समाज में विविधताओं की क्या चुनोतिया है? समझाइये।
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sorry can't read hindi..
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प्राय: यह कहा जाता है कि विविधता की अवधारणा अपने आप में इतनी विविधतापूर्ण है कि इसकी एक समान और मानक परिभाषा तय करना कठिन हो जाता है।हालांकि, विविधता की मुख्य एवं आवश्यक विशेषताओं के संदर्भ में इसे परिभाषित किया जा सकता है।
विविधता को निम्नलिखित मानदंडों के आधार पर परिभाषित किया जा सकता है –
यह समझना कि प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय और अलग है। यह भिन्नता प्रजाति, नस्ल, लिंग,
लैंगिक अभिविन्यास, सामाजिक-आर्थिक स्थिति और राजनीतिक मान्यताओं जैसे विभिन्न
आयामों में हो सकती है।
इन भिन्नताओं की पहचान करना।
आपसी सहिष्णुता और इन मतभेदों की स्वीकार करना, प्रत्येक व्यक्ति में अन्तर्निहित
विविधता के समृद्ध आयामों को अपनाना और उनका सम्मान करना।
भारतीय समाज विभिन्न धर्मों, भाषाओं, खान-पान की आदतों, रीति-रिवाजों, पहनावे, त्योहारों, विश्वासों आदि के रूप में व्यक्त होने वाले सामाजिक-सांस्कृतिक विविध समाज का सबसे प्रभावशाली दृष्टान्त प्रस्तुत करता है। मुगलों, अंग्रेजों आदि के आक्रमणों से लक्षित होने के बावजूद इसे सर्वाधिक प्राचीन उत्तरजीवी सभ्यता (लगभग 5000 वर्ष पुरानी) के रूप में भी जाना जाता
सहिष्णुता, आपसी सम्मान, असंतोष और विचार-विमर्श के मूल्य भारतीय समाज की स्थायी विशेषता रहे हैं। इसने लोगों को अपनी संस्कृति को संरक्षित करने के लिए पर्याप्त स्थान देने के साथ ही विश्व के अन्य भागों से आने वाले लोगों को अपनाने और समाज के साथ एकीकृत करने में सक्षम बनाया है।
जैसा कि शशि थरूर ने कहा है, “यदि अमेरिका को एक मेल्टिंग-पॉट मान लें, तो भारत एक प्लेट है जिसमें अलग-अलग कटोरों में भव्य व्यंजन रखे गए हैं। इनमें से प्रत्येक का स्वाद अलग है, और यह आवश्यक रूप से अगले के साथ मिश्रित नहीं होता है, लेकिन वे एक ही प्लेट पर एक साथ हैं, और भोजन को संतोषजनक बनाने में एक-दूसरे के पूरक हैं।”