भारतीय सरकार द्वारा कृषि के उत्थान के लिए संस्थागत सुधारों का वर्णन कीजिए
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वर्ष 1970 से ही कृषि क्षेत्र में वार्षिक औसत विकास दर लगभग 2.8 प्रतिशत के आसपास स्थिर रही है। विशेष रूप से वर्ष 1991 के बाद गैर-कृषि क्षेत्र में तीव्र विकास दर के बल पर देश में आर्थिक सुधारों ने जोर पकड़ा है लेकिन कृषि क्षेत्र में यह विकास दर इसके बिल्कुल विपरीत है। इसके परिणामस्वरूप, 1990 के दशक के शुरुआत के बाद कृषि और गैर-कृषि क्षेत्रों की विकास दरों में विषमताएं तेजी से बढ़ी। इन विषमताओं के परिणामस्वरूप कृषि और गैर-कृषि क्षेत्रों के कामगारों की आय और किसानों तथा कृषि से भिन्न कामगारों की आय में भी विषमताएं बढ़ी। वर्ष 2011-12 के दौरान, कृषि क्षेत्र के एक कामगार की आय गैर-कृषि क्षेत्र के कामगार की आय का 5वां हिस्सा थी और एक किसान की आय गैर-कृषि क्षेत्र के कामगार की आय की तुलना में एक तिहाई ही थी। कृषिगत आय की धीमी विकास दर और बढ़ती विषमताएं देश में कृषि क्षेत्र से जुड़ी मौजूदा त्रासदी की प्रमुख स्रोत हैं, जो देश के लिए एक चुनौती बन गई है।
केंद्र की राजग सरकार ने इन दोनों चुनौतियों के समाधान के लिए कृषि क्षेत्र की विकास दर को बढ़ाने और किसानों के कल्याण को बढ़ाने के लिए दोहरी रणनीति अपनायी है। यह रणनीति उस बात से बिल्कुल भिन्न है, जब देश में केवल उत्पादन और उससे संबंधित लक्ष्यों का ही अनुसरण किया जाता था, किन्तु किसानों की आय के लिए कोई लक्ष्य अलग से निर्धारित नहीं किया जाता था। देश के योजनाबद्ध विकास के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है, जब विकास के संदर्भ में लक्ष्य के रूप में निर्धारित किया गया है कि वर्ष 2022 तक किसानों की आय को दोगुना किया जाए। यह बात इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है कि देश के लगभग आधे परिवार कृषि और इससे संबंधित क्रियाक्लापों से अपनी आजीविका प्राप्त करते हैं। समाज के इतने बड़े हिस्से की आय बढ़ाना और उनकी खुशहाली की दिशा में पहल करना प्रधानमंत्री के ‘’सबका साथ सबका विकास’’ के सपने को साकार करने की दिशा में उठाया गया एक काफी महत्वपूर्ण कदम है।
कृषि क्षेत्र में विकास से जुडी पहल और नीतिगत सुधार इस दोहरी रणनीति में शामिल हैI विकास सम्बन्धी पहलों में मृदा स्वास्थ्य कार्ड, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (पीएमकेएसवाई), (पीएमएफबीवाई), परंपरागत कृषि विकास योजना, कृषि के लिए अधिक संस्थागत ऋण सुविधा और दालों का बफर स्टॉक बनाना शामिल हैं।
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इन पहलों और उपायों का लक्ष्य कृषि विकास दर बढ़ाना, क्षमता में सुधार लाना, लागत घटाना, उत्पादन में लचीलापन लाना है। इन उपायों से निश्चित तौर पर किसानों की आय बढ़ाने में मदद मिलेगी, किन्तु इनसे अधिक आय नहीं बढ़ सकती। पिछले अनुभव के आधार पर यह अनुमान है कि इन उपायों से किसानों कि आय दोगुना करने में लगभग 25 वर्ष का समय लगेगा। इस प्रकार अगले 5-7 वर्षों में किसानों कि आय में महत्वपूर्ण वृद्धि के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए अतिरिक्त उपाय करने होंगे। इनमें कृषि उत्पादन, विपणन, और अन्य पहलुओं से सम्बंधित नीतिगत वातावरण में आवश्यक परिवर्तन करना शामिल हैं। कृषि और गैर-कृषि क्षेत्रों के बीच बढ़ती विषमताओं और किसानों तथा कृषि क्षेत्र की मौजूदा स्थिति का मुख्य कारण ऐसे सुधारों का सर्वथा अभाव होना है।
1990 के दशक के दौरान जब अपने देश ने अर्थव्यवस्था के लिए गैर कृषि क्षेत्र में महत्वपूर्ण लाभों को महसूस किया था तब कई विशेषज्ञों ने गैर कृषि क्षेत्र में सुधारों के महत्व को समझ कर इसपर जोर दिया था। तदनुसार, कृषि विपणन और आतंरिक व्यापार को उदार बनाने के उद्देश्य से सन 2000 की शुरुआत में कुछ कदम उठाये गए थे। विभिन्न राज्यों में पुराने कृषि उत्पाद विपणन नियमन अधिनियम के स्थान पर एक मसौदा ए पी एम सी अधिनियम (2003) का प्रस्ताव किया गया था। दूध प्रसंस्करण उद्योग में निवेश आकर्षित करने के उद्देश्य से दूध और दूध उत्पाद आदेश में सुधार किया गया था। वर्ष 2002 में एक अन्य महत्ववपूर्ण सुधार के रूप में आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत कृषिगत वस्तुओं की खरीद, आवाजाही और भण्डारण निषेध (लाइसेंस और परमिट) को हटा दिया गया था। वर्ष 2006 और 2007 के दौरान आवश्यक वस्तु अधिनियम में किये गए बदलावों को पूरी तरह वापस ले लिया गया था। कुछ राज्यों में जैसे-तैसे मॉडल ए पी एम सी अधिनियम को अंशतः और हल्के रूप में लागू किया गया था। देश के लगभग दो-तिहाई राज्यों ने अधिनियम में बदलाव तो किये किन्तु केवल एक-तिहाई राज्यों ने ही इसे अधिसूचित किया। यहाँ तक कि अधिसूचित प्रावधानों में कृषि का केवल छोटा हिस्सा शामिल किया गया था।
विकास की गति और किसानों की आय बढ़ाने में नीति सुधारों के महत्व को महसूस करते हुए और उपभोक्ताओं के हितों को पूरा करने के लिए केन्द्र सरकार ने सबसे पहले ई-नाम (राष्ट्रीय कृषि बाजार के लिए इलेक्ट्रोनिक व्यापार मंच) पहल की शुरूआत की।की
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