भारतीय दर्शन के अनुसार कर्म सिद्धांत की व्याख्या करे।
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Explanation:
चावार्क के अतिरिक्त सभी भारतीय दर्शन कर्म के सिधान्त को स्वीकार करते है! आस्तिक षड्दर्शन तथा नास्तिक बौद्ध तथा जैन दर्शन में कर्म के महज को स्वीकार किया गया है। वस्तुतः यह भी कहा जा सकता है कि कर्म का सिधान्त भारतीय दार्शनिक चिंतन की नींव है। कर्म सिधान्त का सहज अर्थ है कि मनुष्य को अपने कार्यों के अनुरूप ही प्रतिफल प्राप्त होता है। यदि मनुष्य सत्कर्म करता है, तो उसे शुभ फल प्राप्त होता है, तथा दुष्कार्यो का अशुभ फल प्राप्त करता है।
भारतीय दर्शन में ‘कृतपणाश‘ तथा ‘अकृतम्युपगम‘, कर्म सिधान्त को व्यक्त करता है। ‘कृतपणाश का अर्थ है मनुष्यों द्वारा किए गए कर्मों के परिणाम स्वतः नष्ट नहीं होते, मनुष्य को उन कार्मों का प्रतिफल अवश्य प्राप्त होता है। ‘अकृत्म्युगम का अर्थ है बिना किए हुए कर्मो के फल भी प्राप्त नहीं होते, अर्थात जिन कर्मो को मनुष्य ने नहीं किया है, उस कर्म से संबंधित प्रतिफल मनुष्य को नहीं प्राप्त होते है !
भारतीय दर्शन में कर्म सिधान्त (कार्य-कारण कनयम की भांति है। जिस तरह भौतिक जगत में किसी घटना के पीछे कारणों का प्रभाव होता है उसी तरह मनुष्य के नैतिक जगत में तथा उसे अपने जीवन में प्राप्त परिस्थितियों के पीछे उसके कर्मों केा कारण माना जाता है।
भारतीय दर्शन में कर्म सिधान्त यह विश्वास करता है कि हमारा वर्तमान जीवन हमारे पूर्व जन्म के कर्मों का प्रतिफल है, जबकि वर्तमान जन्म के कर्मों के आधार पर ही भविष्य के जीवन का निर्धारण होता है !
कर्म सिधान्त इस तरह मनुष्य को स्वयं के भाग्य का निर्माता मानता है, क्योंकि अपने कर्मों के आधार पर वह अपने भविष्य के जीवन का निर्धारण कर सकता है।
कर्म सिधान्त के अनुसार मनुष्य को अपने कर्मों का प्रतिफल प्राप्त होता है, परंतु यह नियम मात्र उन्हीं कर्मो पर लागू हेाता है, जिन कर्मो को मनुष्य किसी निश्चित उद्देश्य, स्वार्थ, विषय-वासना, द्वेश, राग, आदि से अभिभूत होकर करता है। जिन कर्मों को मनुष्य निष्काम भाव से करता है, अर्थात कर्म के प्रतिफल प्राप्त होने की इच्छा से तटस्थ होता है, उसे उन कर्मों का फल प्राप्त नही होगा। निष्काम कर्म का कर्म सिधान्त के अनुसार प्रतिफल प्राप्त नहीं होता।
कर्म तीन प्रकार के होते हैं।
(1) संचित कर्म
(2) प्रारब्ध कर्म
(3) संचीयमान कर्म
‘संचित कर्म‘ का संबंध पूर्व जन्म में किए गये कर्मो से संबंधित होता है, परंतु जिसका प्रतिफल वर्तमान में प्राप्त होना शुरू नहीं हुआ है।
‘प्रारब्ध कर्म‘ का संबंध भी भी पूर्वजन्म के कर्मों से संबंधित होता है। तथा वर्तमान जीवन में उन कर्मों का प्रतिफल मिलना शुरू हो चुका है।
‘संचीयमान कर्म‘: उन कर्मों को कहते हैं जो वर्तमान जीवन में किए जाते हैं तथा जिनका प्रतिफल भावी जीवन में प्राप्त हेाता है।