History, asked by mouryapooja369, 2 months ago

भारतीय व्यापारियों और उद्योगपतियों के सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रति दृष्टिकोण की व्याख्या​

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Answered by DynamiteAshu
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फरवरी 1922 में चौरी-चौरा घटना के बाद गांधी जो द्वारा अचानक असहयोग आदोलन वापस ले ले के निर्णय का अनेकों कांगेमी नेताओं पर प्रभाव पड़ा, उनका उत्साह भंग हआ जिससे राष्ट्रीय आंदोलन तेज़ी से कमज़ोर होता चला गया । मार्च, 1923 में अखिल भारतीय काग्रेस की म्यता घट कर 106,000 तक पहँच गई और मई, 194 सिर्फ 56,000 रह गयी । दोहरे शामन अंदर से तोड़ने का स्वराजियों का कार्यक्रम, (इसके बारे में आप इकाई 21 में पढ़ चुके हैं) परिषद् और नगर पालिकाओं की राजनीति तक ही सीमित होकर रह गया । “परिवर्तन विरोधी गुट”, जिसने । नावों में गांधी के रचनात्मक कार्यों पर जोर दिया था, छिन्न-भिन्न हो गया और अपने आपको उन्होंने राजनीतिक घटनाओं से अलग रखा । असहयोग-खिलाफत आंदोलन के दिनों की असाधारण हिंदूमुसलमान एकता 1920 के मध्य में हुए व्यापक साम्प्रदायिक दंगों में विलीन हो गयी ।

उदाहरण के लिए सितम्बर, 1924 में उत्तर पश्चिमी सीमांत (टियर) प्रांत के क्षेत्र कोहाट में हिंदू-विरोधी हिंसा भड़की । अप्रैल और जुलाई, 1926 के बीच कलकत्ता में दंगों की तीन घटनाओं में लगभग 138 लोग मारे गये । उसी साल ढाका, पटना, रावलपिंडी, दिल्ली और यू.पी. में सांप्रदायिक उपद्रव हुए । बहुत से सांप्रदायिक संगठन बन गए । कुछ जगहों पर यह देखा गया कि कुछ लोग जो स्वराजियों के साथ थे वे हिन्दू महासभा के भी सदस्य थे । वैकल्पिक संविधान के लिए नेहरू रिपोर्ट प्लान पर 1927-28 में जिन्ना मे समझौते की बातचीत प्रमुखतः हिंदू महासभा के विरोध और इसको लेकर जिन्ना की हठधर्मिता के कारण टूट गयी ।

Answered by ItzNiladoll
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Explanation:

सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रति भारतीय व्यापारियों और उद्योगपतियों का रवैया था:

1) प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारतीय व्यापारियों और उद्योगपतियों ने भारी मुनाफा कमाया और शक्तिशाली बने।

2) वे विदेशी वस्तुओं के आयात और एक रुपए स्टर्लिंग विदेशी विनिमय अनुपात के खिलाफ सुरक्षा चाहते थे जो आयात को हतोत्साहित करेगा।

3) व्यावसायिक हित को व्यवस्थित करने के लिए उन्होंने भारतीय औद्योगिक और वाणिज्यिक कांग्रेस (1920 में) और फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज - फिक्की (1927 में) का गठन किया।

4) उन्होंने वित्तीय सहायता दी और आयातित सामान खरीदने या बेचने से इनकार कर दिया।

5) ज्यादातर व्यापारी स्वराज को एक ऐसे समय के रूप में देखते थे जब व्यापार पर औपनिवेशिक प्रतिबंध अब नहीं होगा और व्यापार और उद्योग बाधाओं के बिना पनपेंगे।

6) गोलमेज सम्मेलन की विफलता के बाद, व्यावसायिक समूह अब समान रूप से उत्साही नहीं थे।

7) वे उग्रवादी गतिविधियों के प्रसार से चिंतित थे और व्यापार के लंबे समय तक व्यवधान के बारे में चिंतित थे।

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