भारतवर्ष कविता का सार लिखें
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राष्ट्र मनुष्य की सबसे बड़ी संपत्ति है। जिस भूमि के अन्न-जल से मानव का शरीर बनता है, विकसित होता है, उसके प्रति अनायास प्रेम, श्रद्धा तथा लगाव पैदा हो जाता है। सभी प्राणी अपनी जन्मभूमि से प्यार करते हैं तथा जिससे प्यार किया जाता है उसकी हर वस्तु में सौंदर्य नजर आता है। हम भारतवासियों को भी अपने देश से प्रेम है l
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कविता के बारे मे :-
उषा की पहली किरण हिमालय के आंगन में अपने दर्शन देती है | यह किरणें हमारे उपहार है यह हमारा नई सुबह के लिए स्वागत करती है | सुबह की किरण हंसते हुए भारत का स्वागत करती है। हिमालय पर सूर्य की किरण पड़ने के कारण ओंस की बूंदें चमकने लगती है।हिमालय का वर्णन है। जहां प उषा की पहली किरण का वर्णन है जो हंसकर सबका स्वागत करती है। सुबह उठते ही हम सब नींद से जागते हैं और सभी को जगाते हैं। कमल पुष्प भी खिलता है। सप्तसिंधु के सप्तसुर तारों को छेड़ते हुए अपने सुरों को बिखरते हैं।पहले जो बलि प्रथा चलती थी धर्म के नाम पर उसको बंद कर दिया गया है। शांति और सुख का संदेश देने की बात कही गई है। भारत भूमि ने कभी किसी से कुछ छिना नहीं। प्रकृति के चीजों का ही यहां उपयोग किया गया है।न कोई बाहर से यहां आया है। भारत है सबकी जन्मभूमि। भारत में अतिथि है देवगण। जिनको हम सदियों से अपने संचय से करते हैं दान। हमारे वचन में सत्य झलकती है, हृदय में तेज होती है और प्रतिज्ञा में जोश होती है।
कवि अपने भारत के लिए जीने का संदेश देते हैं और अपना सबकुछ न्योछावर करते हैं।
कवी के बारे मे :-
प्रसाद जी का जीवन कुल 48 वर्ष का रहा है। इसी में उनकी रचना प्रक्रिया इसी विभिन्न साहित्यिक विधाओं में प्रतिफलित हुई कि कभी-कभी आश्चर्य होता है। कविता, उपन्यास, नाटक और निबन्ध सभी में उनकी गति समान है। किन्तु अपनी हर विद्या में उनका कवि सर्वत्र मुखरित है। वस्तुतः एक कवि की गहरी कल्पनाशीलता ने ही साहित्य को अन्य विधाओं में उन्हें विशिष्ट और व्यक्तिगत प्रयोग करने के लिये अनुप्रेरित किया। उनकी कहानियों का अपना पृथक् और सर्वथा मौलिक शिल्प है, उनके चरित्र-चित्रण का, भाषा-सौष्ठव का, वाक्यगठन का एक सर्वथा निजी प्रतिष्ठान है। उनके नाटकों में भी इसी प्रकार के अभिनव और श्लाघ्य प्रयोग मिलते हैं। अभिनेयता को दृष्टि में रखकर उनकी बहुत आलोचना की गई तो उन्होंने एक बार कहा भी था कि रंगमंच नाटक के अनुकूल होना चाहिये न कि नाटक रंगमंच के अनुकूल। उनका यह कथन ही नाटक रचना के आन्तरिक विधान को अधिक महत्त्वपूर्ण सिद्व कर देता है।