भास्करस्याभावे तु सर्वत्र शैत्यमेव भवेत्। सति शैत्ये जीवनौषधीना चोत्पत्तिरेव न स्यात्। एवञ्च संसारस्य स्थितिरेव न
स्यात्। पश्याम एव वयं यत् उत्तर दक्षिणयोः ध्रुव प्रदेशयोः भास्करस्य दर्शनं दुर्लभ भवति। अतएव तयोः प्रदेशयोः प्राय: सर्वत्र
सर्व वर्ष हिममेव तिष्ठति। तस्मादेव कारणात् तत्राल्पाः एव जनाः निवसन्ति, तथा स्वल्पा: एव पादपाः औषधया: च जायन्ते।
फलानामन्नाना तु तत्राभाव एव तिष्ठति।
ऋतूनामपि जनक: भास्करः अस्ति। यदा भास्कर: उत्तरायणो भवति तदा तस्य प्रकाश: ऊष्मा च तोत्रौ भवतः। तयोः
आधिक्यमेव वसन्तु ग्रीष्मर्तु चोत्पादयति। ग्रीष्मकालस्यातपेन समुद्राणा, नदीना, सरसा च पयासि वाष्पितानि भूत्वा आकाशे
गच्छन्ति। ततश्च मेघाः जायन्ते। एभिः मेषैरेव वर्षा भवति। वर्षाभिरेव विविधान्यन्नानि, शाकाः पादपाः च भवन्ति।
यदा भास्कर; दक्षिणायणो भवति तदा तस्य प्रकाशो मन्दो जायते। एतस्मिन्नेव काले शरदधेमन्त शिशिराणामृतूना
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