Social Sciences, asked by rajsinghaniya9334, 4 hours ago

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26. राष्ट्र में राष्ट्रकिता का निर्माण सर्वाधिक महत्वपूर्ण वहीर्गामी कारक है इस कथन को आप किस दर्शन पर आरोपित
करेंगे?​

Answers

Answered by sgokul8bkvafs
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Answer:

Explanation:

शिक्षा के वैक्तिक तथा सामाजिक उद्देश्य

परिचय

व्यैक्तिक उदेश्य का अर्थ

व्यैक्तिक उद्देश्य

व्यैक्तिक उद्देश्य का व्यापक अर्थ

व्यैक्तिक उद्देश्य के पक्ष में तर्क

व्यैक्तिक उद्देश्य के विपक्ष में तर्क

समाजिक विघटन

वास्तविक जीवन के लिए अव्यावहारिक

व्यकित्वाद को प्रोत्साहन

समाजवाद का शत्रु

मनुष्य के सामाजिक स्वरुप की उपेक्षा

वातावरण में अनुचित परिवर्तन

नैतिक गुणों की उपेक्षा

वातावरण की उपेक्षा

तर्क शक्ति के विकास में बाधा

शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य का अर्थ

सामाजिक उद्देश्य का संकुचित अर्थ

सामाजिक उद्देश्य का व्यापक अर्थ

सामाजिक उद्देश्य के पक्ष में तर्क

सामाजिक उद्देश्य के विपक्ष में तर्क

शिक्षा के व्यक्तिक एवं सामाजिक उद्देश्यों का समन्वय

परिचय

मानव बड़ा है अथवा समाज ? यह प्रश्न  प्राचीन काल से ही विद्वानों के समक्ष विचारणीय रहा है। कुछ विद्वान् समाज की अपेक्षा व्यक्ति के व्यक्तित्व पर बल देते हैं, को कुछ समाज के हित के समक्ष व्यक्ति को बिलकुल महत्वहीन मानते हुए उसे समाज की उन्नति के लिए बलिदान तक कर देने के पक्ष में हैं। इस वाद-विवाद के आधार पर की शिक्षा के व्यैक्तिक तथा सामाजिक उद्देश्यों का सर्जन हुआ है। शिक्षा सम्बन्धी सभी उदेश्य प्राय: इन्ही दोनों उद्देश्यों में से किसी एक उदेश्य के पक्ष में बल देते हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि शिक्षा के इन दोनों उद्देशों में समन्वय स्थापित किया जा सकता है अथवा नहीं ? यदि अन्तर केवल बल देने का ही तो इन दोनों उद्देश्यों के बीच समन्वय स्थापित करने में कोई कठिनाई नहीं होगी। परन्तु इसके लिए हमें निष्पक्ष रूप से इन दोनों उद्देश्यों के संकुचित तथा व्यापक रूपों का अलग-अलग अध्ययन करके यह देखन होगा कि इन दोनों उद्देश्यों में कोई वास्तविकता विरोध है अथवा केवल बल देने का अन्तर है। निम्नलिखित पक्तियों में हम शिक्षा के इन दोनों उद्देश्यों पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाल रहे हैं।

व्यैक्तिक उद्देश्य

व्यैक्तिक उद्देश्य का संकुचित अर्थ – संकुचित अर्थ में शिक्षा के व्यैक्तिक उद्देश्य को आत्माभिव्यक्ति बालक की शक्तियों का सर्वांगीण विकास तथा प्राकृतिक विकास आदि नामों से पुकारा जाता है। इस अर्थ में यह उद्देश्य प्रकृतिवादी दर्शन पर आधारित है। इसके प्रतिपादकों का अटल विश्वास है कि समाज की अपेक्षा व्यक्ति बड़ा है। अत: उनकी धारणा है कि परिवार, समाज, राज्य तथा स्कूलों को बालक की व्यक्तिगत शक्तियों को विकसित करने के लिए ही स्थापित किया गया है। इस दृष्टि से प्रत्येक राज्य तथा सामाजिक संस्था का कर्त्तव्य है कि वह व्यक्ति के जीवन को अधिक से अधिक अच्छा, सम्पन्न तथा सुखी एवं पूर्ण बनाये।

इस उद्देश्य का प्रचार सबसे पहले प्रकृतिवादी दार्शनिक रूसो ने अपनी प्राकृतिक शिक्षा के द्वारा किया। उसने लिखा है – “ प्रत्येक व्यक्ति एक विशिष्ट स्वाभाव को लेकर जन्म लेता है। हम बिना सोचे-समझे भिन्न-भिन्न रुचियों वाले बालकों को एक ही प्रकार के कार्यों में जुटा देते हैं। ऐसी शिक्षा उनकी विशेषताओं को नष्ट करके एक निर्जीव सामान्यता की छाप लगा देती है। अत: रूसो ने कृत्रिम समाज का खण्डन करते हुए इस बात पर बल दिया कि बालक की सम्पूर्ण शिक्षा का प्रबन्ध प्रकृति के अनुसार होना चाहिये। उसने यह भी बताया कि बालक का प्राकृतिक विकास उसी समय हो सकता है जब उसकी शिक्षा की पूर्ण व्यवस्था उसकी रुचियों, रुझानों तथा आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर की जायेगी। ऐसी दशा में सामूहिक शिक्षण तथा निश्चित पाठ्यक्रम का बहिष्कार करके व्यैक्तिक शिक्षा तथा लचीले पाठ्यक्रम का निर्माण करके समस्त शिक्षण-पद्धतियों को क्रिया के सिधान्तों पर आधारित करना चाहिये।

रूसो की भांति अन्य शिक्षा शास्त्रियों ने भी व्यैक्तिक उद्देश्य के इसी अर्थ पर बल दिया परन्तु उन सब में टी०पी० नन का प्रमुख स्थान है। नन ने अपनी पुस्तक एजुकेशन; इट्स डेटा एंड दी फर्स्ट प्रिन्सिपिल्स में व्यक्ति की व्यक्तिगत शक्तियों के विकास पर विशेष बल देते हुए लिखा है – “मानव जगत में यदि कुछ भी अच्छाई आ सकती है तो वह व्यक्तिगत पुरुषों तथा स्त्रियों के स्वतंत्र प्रयासों के द्वारा ही आ सकती है। अत: शिक्षा का संगठन इस सत्य के आधार पर ही होना चाहिये “|

नन ने अपनी पुस्तक के दुसरे अध्याय में अपने विचार की पुष्टि करने के लिए प्राणी शास्त्र की सहायता लेते हुए लिखा है कि चूँकि प्रत्येक प्राणी अपने उच्चतम विकास के लिए प्रयास कर रहा है, इसलिए शिक्षा का व्यैक्तिक उद्देश्य प्रकृति के नियम के अनुकूल है। अत: नन के मतानुसार “शिक्षा के प्रत्येक व्यक्ति को ऐसी अवस्थायें प्राप्त होनी चाहिये जिनमें उसकी व्यैक्तिक का पूर्ण विकास हो सके”।

नन के विचार से विशेष प्रकार के व्यक्तित्व से ही संसार की उन्नति हो सकती है। अत: बालक को उसकी मूल प्रवृतियों के अनुसार विकसित होने की पूर्ण स्वतंत्रता मिलनी चाहिये। किसी भी बालक को ऐसा कार्य करने के लये विवश करना उचित नहीं है जिसको करने के लिए वह बना ही नहीं है। यदि बालक की रुचियों तथा मूल प्रवृतियों की अवहेलना करके उस पर सामाजिक नियमों को बल-पूर्वक थोपा जायेगा तो उसका विशेष व्यक्तित्त्व कुण्ठित हो जायेगा। अत: प्रत्येक माता-पिता, शिक्षक, समाज तथा राज्य का कर्त्तव्य है कि वह प्रत्येक बालक की शिक्षा की व्यवस्था उसके विशेष व्यक्तित्व के विकास को दृष्टि में रखते हुए करे जिससे वह अपनी इच्छानुसार विकसित हो सके। इस प्रकार संकुचित अर्थ में शिक्षा के व्यैक्तिक उद्देश्य का आशय आत्माभिव्यक्ति अथवा प्राकृतिक विकास है।

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