भाषामन
निलनिधि वाम्य
मे अपोवाकिट शब्द का
शी
१
करला
ड
राहमंद पडलानर निति
अमजीवि को की मजदुरी र आमुली कम
मैं रोज
ईश्वर से प्रार्थना
गोवा देव में शापित हो उठा।
3)
डबल
पा
हमें अफा बाम ईमानदारी से
करना चाहिमा ।
को कर राज
जर
आप विदेश
विदेश में भ्रमण कर तिम्रा है
0
8)
नावश्य है
कोष मनुष्य
कोले
छल्म
rid
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Answer:
i don't know yaaaaaaar
Answer:
प्रार्थना एक प्रकार की विनती है जो हम किसी वस्तु को किन्हीं दूसरों से मांगने के लिए करते हैं। ईश्वर संसार में सबसे बड़ी, शक्तिशाली, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, सर्वज्ञ व सर्वव्यापक गुणों वाली सत्ता है। हम उससे बुद्धि, ज्ञान, शक्ति व बल, धन व ऐश्वर्य आदि की प्रार्थना कर सकते हैं और वह हमें प्राप्त भी हो सकती हैं। प्रार्थना क्यों करें, इसका सरल उत्तर है कि हम अल्पज्ञ अर्थात् अल्प व न्यून ज्ञान वाले हैं, बल व शक्ति में भी न्यून, धन व ऐश्वर्य में भी न्यून हैं अतः इनकी प्राप्ति के लिए हमारे पास ईश्वर से प्रार्थना करने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। हम कह सकते हैं कि हम पुरुषार्थ कर यह वस्तुयें प्राप्त कर सकते हैं, यह उत्तर कुछ ठीक भी है, पुरुषार्थ तो हमें करना ही है, इसके लिए भी यदि हम ईश्वर से प्रार्थना करें तो हमें अपने मनोरथ पूर्ण करने में ईश्वर से सहायता प्राप्त हो सकती हैं। यह भी हमें ज्ञात होना चाहिये कि संसार में जो भी ऐश्वर्य व धन आदि पदार्थ हैं, उनका स्वामी एकमात्र ईश्वर ही है। हमें पुरूषार्थ करने पर यह वस्तुयें प्रयोग करने के लिए प्राप्त होती है। यदि हम इन वस्तुओं व धन आदि में लिप्त होते हैं या इनसे मोह करते हैं, तो यह हमारे पतन का कारण होता है। यदि हम ईश्वर से प्रार्थना न करें जो कि गुरूओं का भी गुरू और माता-पिता-आचार्य के समान है तथा इनसे भी बड़ा और हमारे लिए हित व कल्याणप्रद है, तो ऐसा न करने का कोई कारण नहीं है। ऐसा न करना हमारा अज्ञान व मूर्खता ही होगी। बिना माता-पिता की सहायता के हमारा जन्म नहीं हो सकता और न हि उनके पोषण के बिना हम ज्ञान, बल व शक्ति अर्जित कर सकते हैं। संसार का यह समस्त ज्ञान परमात्मा का ही है। परमात्मा ने ही इस सृष्टि को बनाया है और हमें व संसार के सभी प्राणियों को माता-पिता द्वारा जन्म दिया है। सभी सुख के साधन भी परमात्मा के द्वारा हमारे लिए बनायें गये हैं। हमें इन साधनों का आवश्यकतानुसार त्यागपूर्वक उपयोग करने का ही अधिकार है। हमारा अपना, यहां तक की हमारा शरीर भी, हमारा नहीं है। यह ईश्वर व हमारे माता-पिता की हमें निःस्वार्थ देन व भेंट हैं। हमें इन सबके प्रति हमेशा कृतज्ञ रहना है। जो ऐसा नहीं करता वह मनुष्य कहलाने योग्य नहीं होता।