बहुत से मनुष्य यह सोच-सोचकर कि हमें कभी सफलता नहीं मिलेगी, देव हमारे विपरीत है, अपनी सफलला को
अपने ही हाथों पीछे धकेल देते है। उनका मानसिक भाव सफलता और विजय के अनुकूल बनता ही नहीं तो सफलता
और विजय का? यदि हमारा मन शंका और मिराशा से भरा है तो हमारे कामों का परिचय भी निराशाजनक ही होगा
अयोकि सफलता की विजय की, उन्नति की कुंजी तो अविचल श्रद्धाही है।
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बहुत से मनुष्य यह सोच-सोचकर कि हमें कभी सफलता नहीं मिलेगी, देव हमारे विपरीत है, अपनी सफलता को अपने ही हाथों पीछे धकेल देते है। उनका मानसिक भाव सफलता और विजय के अनुकूल बनता ही नहीं तो सफलता और विजय का? यदि हमारा मन शंका और मिराशा से भरा है तो हमारे कामों का परिचय भी निराशाजनक ही होगा क्योंकि सफलता की विजय की, उन्नति की कुंजी तो अविचल श्रद्धा ही है।
संदर्भ : यह गद्यांश ‘आत्मविश्वास’ नामक पाठ से लिया गया है। इस गद्यांश के लेखक कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर हैं। इस गद्यांश के माध्यम से उन्होंने लेखक ने यह बताने का प्रयत्न किया है कि हमें सफलता तभी प्राप्त होगी जब हमें अपने लक्ष्य को पाने के लिए अपने अंदर अटूट विश्वास होगा।
व्याख्या : लेखक कहता है कि कुछ व्यक्ति यह सोच लेते हैं कि वह सफलता प्राप्त ही नहीं कर सकते। उनकी किस्मत खराब है। इस तरह की नकारात्मक विचारधारा ही उन्हें सफलता प्राप्ति में रुकावट पैदा करती है और वह सही मायने में सफलता प्राप्त नहीं कर पाते। यह सब मन के विश्वास की बात है। उन्हें अपनी सफलता अपने लक्ष्य के प्रति दृढ़ विश्वास नहीं होता, इसलिए वह लक्ष्य पर चलने से पहले ही निराश हो जाते हैं। उन्हें अपनी क्षमताओं अपनी योग्यताओं पर विश्वास नहीं होता। जब तक व्यक्ति में अपने अंदर अपनी सामर्थ्य और अपनी क्षमता पर संदेह होगा। वह सफलता प्राप्त नहीं कर सकता, उसे निराशा ही मिलेगी। अपनी चिंताओं के प्रति विश्वास की कमी उसे सफलता से दूर करेगी। इसलिए अपने लक्ष्य को पाने के लिए अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि स्थिर चित्त से सफलता पाने के लिए मन में दृढ़ विश्वास बनाया जाए तब भी सफलता मिलेगी।