Science, asked by KeshavGiri79, 9 months ago

बहुत तकलीफ़ होती है ना वो तुम्हे छोर कर किसी और से बातें करते है। लेकिन यही प्रकृति का नियम है "जहां ज्यादा समय दोगे वजह तुम्हारी VALUE काम हो जाएंगी।

~प्रशांत मिश्रा (अमन)​

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श्याम बिहारी श्यामल का उपन्यास ‘धपेल’ पढ़ने के बाद याद आता है उत्तरांचल के कृतिकार विद्यासागर नौटियाल का उपन्यास ‘मेरा जामक वापस दो’। विद्यासागर नौटियाल ‘जामक वापसी’ के जरिये पिछले पन्ने के लोगों या पृष्ठभूमि के लोगों की आवाज़ बनकर फ़रियाद करते हैं देश के लोकतंत्रा की वापसी’ की। अजीब इसलिये नहीं लगेगी लोकतंत्र में लोकतंत्र की वापसी’ की फरियाद, क्योंकि कुछ ‘घरानों’ की घेरेबंदी की गिरफ्त में फँसे हम सब, इस अलोकतांत्रिक शासनिक षड्यंत्र से मुक्त होना चाहते हैं! लोकतंत्र किस तरह से अलोकतंत्र में तब्दील हो रहा है, किस तरह से विचारधाराएँ मर रही हैं, किस तरह से वास्तविक नेतृत्वकर्ता भुखमरी की कगार पर अंतिम सांसे ले रहे हैं, इस सबका आँखों देखा- सा हाल मिलता है-‘धपेल’ उपन्यास में!

उपन्यास का शीर्षक ‘धपेल’ प्रतीक है मनुष्य की ‘हवस’ का। कृतिनायक घनश्याम तिवारी दस-बारह वर्षों की सुदीर्घ अवधि के बाद अपने जन्म स्थान पलामू के डाल्टनगंज में आता है। स्टेशन पर उतरते ही चिरपरिचित स्थान, वस्तुएँ, व्यक्ति उसके मन-मस्तिष्क को आच्छन्न कर लेते हैं। इसी क्रम में उसे याद आती है ‘धपेल बाबा’ की। बाबा का रहवास मार्ग में ही पड़ता है, सो रास्ते में चलते-चलते वह उन्हें देखने की इच्छा पूर्ण कर लेता है। बाबा को देख कर वह सोचता है कि क्या धपेल बाबा की यह अतिस्थूल काजलवर्णी काया, अभी भी ‘मृतक भोज’ के नाम पर ‘सेरों पसेरियों’ अन्न खा जाती होगी….। पूरे नगर में यह मान्यता थी कि यदि धपेल बाबा को खिला पिला कर संतुष्ट कर दिया जाय तो मृतात्मा को शांति मिलती है! जहाँ लोगों को दो समय का भोजन नसीब नहीं उन हालातों में मृत्यु धपेल बाबा के लिए भोजन का उत्सव है। सामान्यतया बाबा दस-बारह व्यक्तियों की खुराक अकेले ही खा लेते हैं, फिर भी पेट भरता नहीं है। अपने परिजन की आत्मशांति के लिए जितनी श्रद्धा से लोग ‘धपेल बाबा’ को खिलाते हैं, उतनी ही तत्परता/तन्मयता से धपेल बाबा भोजन मिष्ठान का भक्षण करते जाते हैं! ‘न वो कम न ये’ की स्थिति बनी ही रहती है। अन्याय, उत्पीड़न, शोषण, बंधुआ मजूरी, सूखा, भुखमरी, जंगलों की अवैध कटान, पशु तस्करी जैसे क्रूरतम अमानवीय कृत्यों द्वारा धन उगाने लूटने की वृत्ति का ऐसा ‘धपेलीकरण’ हो रहा है, पूरे पलामू में, कि किसी तरह रुकता तो नहीं, वरन दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है।

नेताओं, अफसरों द्वारा जो ‘धपेलीकारण’ हो रहा है उससे मुक्ति की आस में लोगों, बुद्धिजीवियों की कातर कथा है इस उपन्यास में। जिन लोगों ने अपना पूरा होश हवास लगा कर नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथ कंधे के कंधा भिड़ा कर ‘स्वदेश’ ‘स्वराज्य’ के लिये अपने सारे स्वार्थों को न्यौछावर कर दिया, आज वे अभाव, विपन्नता और भुखमरी से पस्त एड़ियाँ रगड़-रगड़ कर मौत की तरफ पल छिन बढ़ रहे हैं, मगर देश को संभालने चलाने वाली सत्ता न जाने क्यों इन्हें देख कर भी, देख नहीं पा रही! आज नेतृत्व आँखें फेरे है, तो कम्युनिस्ट विचारधारा के सत्तासीन ही क्यों देखें कि कल तक जिस कॉमरेड ने खून पसीना बहा, पार्टी के लिए, देशहित में काम किया, आज वे किस तरह तिल-तिल तड़प रहे हैं, सूखे की मार से संतप्त अन्न और जल के अभाव में घिसट-घिसट कर मौत को गले लगा रहे हैं। ‘‘कई बार की हाँक के बाद धीरे-धीरे महतो जी ने आँखें खोल दी थी। कभी का कसरती उनका हट्टा-कट्टा शरीर आज सिकुड़ी-सिकुड़ी त्वचाओं के जाल में मछली जैसा फँसा दिख रहा था। धनु बाबू के जेहन में अचानक कौंध गए मास्टर साहब! उन्होंने एक पल के लिए खाट पर महतो जी की जगह भीष्म पितामाह की तरह गिरे मास्टर साहब की छवि वहाँ प्रत्यक्ष देखी, वे काँप उठे! मार्क्स और निराला में रस्सी तानने वाले मास्टर साहब और आज़ादी की लड़ाई में सुभाषचंद्र बोस की सेना में जाकर क्रांति का बिगुल फूँकने और आज़ादी के बाद आज़ादी की बेसब्र तलाश में खुद को सलीब पर चढ़ा देने वाले महतो जी! कैसा विचित्र साम्य है! दोनों एक समय में, एक ही त्रासद अवस्था में समान तरह से भीष्म पितामाह की तरह…! एक जैसी अक्खड़ता के साथ मौत को भी अपने भय से दूर ठिठकाए, इस कदर क्यों पड़े हुए है?’’ (श्याम बिहारी ‘श्यामल’, धपेल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 232) घनश्याम तिवारी तथा उनके साथी मेहतो जी जैसे जांबाज स्वतंत्राता संग्राम सेनानी की यह हालत देख कर उनसे कहते हैं-‘‘यह देश आज कितना कृतघ्न हो चुका है कि आज़ादी मिलने के बाद वह आप जैसे जाँबाज सेनानी तक को किनारे धकेलकर खुद में मशगूल हो गया है।’’ (वही, पृ. 238) तब महतो के जवाब में पीड़ा, आक्रोश का जिस तरह से उबाल उठता है, वह आज के उन सब सेनानियों की पीड़ा है, जिन्होंने घर, परिवार, बाल-बच्चों तथा रोजी-रोटी का त्याग करके अपना तन, मन, धन अर्पित कर रक्खा था देश के लिये। महतो कहते हैं- ‘‘असल में यह देश का नहीं, यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमने तमाम लड़ाइयाँ लड़ीं, आज़ादी पाने के लिए सब जतन किए और आज़ादी मिली, तो हमने जो चाहा था, सब उसके विपरीत होने लगा। हमारा दुर्भाग्य यही है कि हम आज जीवित बचकर अपने सपनों को चिंदी-चिंदी उड़ते देख रहे हैं, हमारे अरमान कुत्तों की तरह पागल होकर आर्तनाद करते मर रहे हैं और हम यह देखने को बचे हुए हैं….।’’

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