भैया कृष्ण ! भेजती हूँ मैं राखी अपनी, यह लो आज। कई बार जिसको भेजा है सजा-सजाकर नूतन साज।। मैंने पढ़ा, शत्रुओं को भी जब-जब राखी भिजवाई। रक्षा करने दौड़ पड़ा वह राखी - बन्द - शत्रु - भाई।। किंतु देखना है, यह मेरी राखी क्या दिखलाती है। क्या निस्तेज कलाई पर ही बँधकर यह रह जाती है।। हाथ काँपता, हृदय धड़कता है मेरी भारी आवाज। अब भी चौक-चौक उठता है जलियाँ का वह गोलंदाज।। बहिनें कई सिसकती हैं हा ! सिसक न उनकी मिट पाई। लाज गँवाई, गाली पाई तिस पर गोली भी खाई।। डर है कहीं न मार्शल-ला का फिर से पड़ जावे घेरा। ऐसे समय द्रौपदी-जैसा कृष्ण ! सहारा है तेरा।। बोलो, सोच-समझकर बोलो, क्या राखी बँधवाओगे भीर पड़ेगी, क्या तुम रक्षा करने दौड़े आओगे यदि हाँ तो यह लो मेरी इस राखी को स्वीकार करो। आकर भैया, बहिन सुभद्रा' के कष्टों का भार हरो।।
प्रश्न 1. कवयित्री श्रीकृष्ण से क्या वचन लेना चाहती है?
प्रश्न 2. कवयित्री क्या याद करके बार-बार चौंक जाती है?
प्रश्न 3. राखी के बारे में कवयित्री ने क्या पढ़ा है ?
प्रश्न 4. उपर्युक्त पद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक लिखिए। प्रश्न 5. कविता की किस पंक्ति का अर्थ है- संकट आने पर क्या तुम रक्षा करने आओगे?
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