Hindi, asked by sushiloraon120, 3 months ago

bhagat sing ni nojwan sabha ka ghatan q kiya tha

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Answered by tilmeezahfatima
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भगत सिंह ने 1926 से ही वास्तविक प्रजातंत्र यानी समाजवादी प्रजातंत्र की ओर अपने कदम बढ़ा दिये थे. इसी लक्ष्य के लिए उन्होंने अपने साथी भगवती चरण वोहरा के सहयोग से 'नौजवान भारत सभा' की स्थापना करने का बीड़ा उठाया और यह जानते हुए कि क्रांति का काम देश की आम जनता को संगठित किये बिना सम्भव न होगा, उन्होंने पंजाब में जगह-जगह 'नौजवान भारत सभा' की इकाइयां गठित करने का काम शुरू कर दिया. 'नौजवान भारत सभा' नाम से ऐसा जान पड़ता है कि मानो यह छात्रों-नौजवानों की माँगों के दायरे में काम करने वाला ही संगठन होगा, लेकिन असल में उनका यह संगठन भारत की आज़ादी एवं मजदूरों-किसानों की शोषण-दमन से पूर्ण मुक्ति के कार्यक्रम पर आधारित था. 'नौजवान भारत सभा' का घोषणा-पत्र भगत सिंह और भगवती चरण वोहरा ने मिलकर 6 अप्रैल 1928 को तैयार किया था और 11 से 13 अप्रैल 1928 को सभा का सम्मेलन अमृतसर में सम्पन्न हुआ था, जिसमें भगत सिंह 'नौजवान भारत सभा' के महासचिव और भगवती चरण वोहरा प्रचार सचिव बने थे.

'नौजवान भारत सभा' के इस घोषणा-पत्र के अध्ययन से कोई भी व्यक्ति भगत सिंह के वास्तविक लक्ष्य और विचार धारा की झलक पा सकता है कि वे देश में क्रांति के जरिये किस प्रकार के प्रजातंत्र की स्थापना करना चाहते थे. घोषणा-पत्र के आरम्भ में ही भगत सिंह और उनके साथी भगवती चरण वोहरा देश की तत्कालीन राजनैतिक परिस्थिति और नौजवानों के फर्ज को दर्शाते हुए, अप्रैल 1928 में लिखा था-

"नौजवान साथियो, हमारा देश एक अव्यवस्था की स्थिति से गुजर रहा है. चरों तरफ एक-दूसरे के प्रति अविश्वास और हताशा का साम्राज्य है. देश के बड़े नेताओं ने अपने आदर्श के प्रति आस्था खो दी है और उनमें से अधिकांश को जनता का विश्वास प्राप्त नहीं है. भारत की आज़ादी के पैरोकारों के पास कोई कार्यक्रम नहीं है और उनमें उत्साह का आभाव है. चरों तरफ अराजकता है. लेकिन किसी राष्ट्र के निर्माण की प्रक्रिया में अराजकता एक अनिवार्य तथा आवश्यक दौर है. ऐसी किसी नाजुक घड़ी में कार्यकर्ताओं की ईमानदारी की परख होती है, उनके चरित्र का निर्माण होता है, वास्तविक कार्यक्रम बनता है, और तब नए उत्साह, नयी आशाएँ, नए विश्वास और नए जोशखरोश के साथ काम आरम्भ होता है. इसलिए इसमें मन ओछा करने की कोई बात नहीं है." (जगमोहन-चमनलाल, 1086, पृष्ठ 242)

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