Hindi, asked by dhairya52, 9 months ago

bhagwan ke pe
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Answered by mrsktch
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आस्था से मिलती है आत्मिक शांतिः डॉ. क्यौनिश मानते हैं कि ईश्वरीय आस्था से मन को जो शांति मिलती है, उससे जीवन के तनाव शिथिल होते हैं। मानसिक विषाद तथा हृदय और रक्तसंचार की बीमारियां होने की संभावना घटती है। इससे आयु बढ़ती है। डॉ. क्यौनिश कहते हैं कि जो कोई जीवनभर सप्ताह में कम से कम एक बार किसी देवालय या पूजास्थल पर जाता है, उस की आयु ललगभग सात साल तक बढ़ सकती हैं। जिनका जीवन बहुत तनावपूर्ण है और जीवनप्रत्याशा औरों से कम, सप्ताह में एक बार भगवान के घर जाने से उन की आयु 14 वर्ष तक भी बढ़ सकती है।

2002 में डॉ. क्यौनिश ने एक नया अध्ययन पेश किया। सांस और हृदय रोग के 276 रोगियों के बीच उन्होंने यह जानने का प्रयास किया कि जो लोग अकेले में 'चुपचाप ईश्वर को नमन करते हैं' और जो लोग मिल-जुल कर 'सामूहिक तौर पर धार्मिक अनुष्ठान मनाते हैं,' उनके स्वास्थ्य के बीच क्या कोई अंतर होता है। उन्होंने पाया की अपनी-अपनी बीमारी से कष्ट तो दोनों प्रकार के लोगों को था, लेकिन जो लोग नियमितरूप से किसी चर्च में जाते हैं, उन्हें अपनी बीमारी उतनी कष्टदायक नहीं लगती, जितनी चर्च में नहीं जाने वालों को लगती है।

स्वास्थ्य पर आस्था-प्रभाव का धार्मिक दोहनः डॉ. क्यौनिश की आलोचना में कहा जा सकता है कि उन्होंने 'बाइबल बेल्ट' कहलाने वाले अमेरिका के सबसे कट्टर धार्मिक ईलाक़े में अपना अध्ययन किया और अध्ययन में ऐसे लोग शामिल नहीं थे, जिन्हें धर्ममुक्त कहा जा सके। अमेरिका की ही कोलंबिया यूनिवर्सिटी के प्रो. रिचर्ड स्लोअन हालांकि इस बात से इनकार नहीं करते कि ईश्वर के प्रति आस्था का स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है, पर साथ ही इस बात की आलोचना भी करते हैं कि अमेरिका में ईसाई धर्म और डॉक्टरी चिकित्सा के बीच एक मिलीभगत-सी बन गई है। डॉक्टर स्वयं भी क्योंकि ईसाई धर्मावलंबी होते हैं, इसलिए वे कई बार अपने मरीजों से ईश्वर-प्रार्थना करने को भी कहते हैं। दूसरी ओर, ईसाई चर्च स्वास्थ्य पर ईश्वर के प्रति अनुकूल प्रभाव का धर्मप्रचार के लिए भी लाभ उठाते हैं।

अमेरिका से बाहर यूरोप के देशों में ईश्वरीय आस्था और स्वास्थ्य के बीच संबंध पर बहुत कम लोगों ने काम किया है। ऐसे ही गिने-चुने लोगों में से एक हैं जर्मनी में बीलेफेल्ड विश्वविद्यालय के धर्मशास्त्री और मनोवैज्ञानिक प्रो. कोंस्तांतीन क्लाइन। उनका मत है कि रोगमुक्ति और आत्मा की संतुष्टि के बीच बड़ा अंतर है। अस्पताल में बिस्तर पर पड़ा आदमी सबसे पहले स्वस्थ होना चाहता है, न कि आत्मा की शांति के लिए मचल रहा होता है। डॉक्टर बीमारी तो ठीक कर सकता है, लेकिन वह आध्यात्मिक जरूरतें पूरी नहीं कर सकता। रोगी की यदि दोनों जरूरतें पूरी करनी हैं, तो अस्पतालों को अपने यहां डॉक्टरों के साथ-साथ धार्मिक पुरोहितों को भी रखना पड़ेगा।

अस्पतालों में डॉक्टरों के साथ अब पुरोहित भीः जर्मनी में इसकी शुरुआत हो भी चुकी है। बर्लिन का संत हेडविश अस्पताल ऐसे रोगियों के लिए, जो अपने आप को बहुत एकाकी महसूस करते हैं, एक ईसाई पादरी और एक नन (ईसाई भिक्षुणी) की सेवाएं लेने लगा है। देखा गया है कि उन के साथ बातचीत के बाद दुखी और हताश रोगियों की स्थिति में सुधार होने लगता है। जर्मनी जैसे पश्चिमी देशों की आधुनिक चिकित्सा पद्धति (एलोपैथी) के डॉक्टर भी आब योग और ध्यान जैसी विधियों के प्रति, जिन में किसी न किसी रूप में ईश्वर का प्रसंग भी आता है, मुंह नहीं बिचकाते। जर्मनी की तो एक सबसे बड़ी स्वास्थ्य बीमा कंपनी 'टेशनिकर क्रांकनकासे' ने तनावजन्य बीमारियों से निपटने के लिए योगाभ्यास का बिल भी अदा करना शुरू कर दिया है।

धर्म के रंग में रंगे ईश्वर के नुकसान भी हैं: वैसे, ईसाई देश होने के नाते जर्मनी जैसे पश्चिमी देशों में ईसाई धर्म की ईश्वरीय अवधारणा के प्रति लोगों का परम विश्वास भी कई बार बीमारी को ठीक होने के बदले उसे बढ़ाने वाला कारण बन जाता है। ईसाइयत में माना जाता है कि कयामत के दिन ईश्वर सब की परीक्षा लेता है कि वे धर्मपालन के प्रति कितने निष्ठावान थे। बहुत से रोगी ही नहीं, स्वस्थ लोग भी इस चिंता की चिता में जलने लगते हैं कि कयामत के दिन का क्या वे सामना कर पाएंगे? उन्हें अपने जीवन की वे यादें कचोटने लगती हैं, जिनके बारे में उनका समझना है कि वे धर्म की दृष्टि से साफ-सुथरी नहीं थीं। उन्हें डर लगने लगता है कि मृत्यु के बाद उन्हें कहीं नरक में न धकेल दिया जाए। कयामत के डर से मुक्ति दिलाने के लिए अब लोगों को यह समझाया जाने लगा है कि ईसाई भगवान, यानी ईसा मसीह, प्रताड़ना की नहीं, क्षमा की मूर्ति हैं। आत्मग्लानि करने वाले को वे क्षमादान देते हैं।

दूसरे शब्दों में, चाहे कोई धार्मिक हो या नहीं और धर्म चाहे जो भी हो, ईश्वर के प्रति आस्था का स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव जरूर पड़ता है। लेकिन, धार्मिक स्वभाव के लोगों में यह प्रभाव किसी धर्म विशेष की ईश्वरीय अवधारणा से पूरी तरह मुक्त नहीं होता। जो लोग किसी धर्म के अनुयायी नहीं होते और सीधे ईश्वर की शरण में जाते हैं, वे ईश्वर संबंधी किसी धार्मिक पचड़े से भी मुक्त रहते हैं।

शोधकों ने अभी तक यह जानने का प्रयास शायद नहीं किया है कि जो लोग स्वयं को धार्मिक मानते हैं, नियमित रूप से मंदिर, मस्जिद या चर्च में जाते हैं या घर पर ही नियमित पूज-पाठ या ईश्वर की आराधना करते हैं, क्या वे ईश्वर के डर से चोरी-बेइमानी, झूठ और मक्कारी, छल-कपट और दुराचार जैसी अनैतिकताओं से भी दूर रहते हैं? यदि नहीं रहते, तो क्या तब भी उनका स्वास्थ्य दूसरों से बेहतर और आयु लंबी होती है? यदि तब भी उनका स्वास्थ्य बेहतर और आयु लंबी पाई गई, तो बड़ा धर्मसंकट खड़ा हो जाएगा, क्योंकि इस का अर्थ यही होगा कि ईश्वर केवल अपनी पूजा चाहता है, नैतिकता-अनैतिकता से उसे कोई मतलब नहीं। समस्या यह होगी कि ऐसे अध्ययन के समय अपने बारे में भला यह कौन कहेगा कि वह 'राम-नाम भी जपता है और पराया माल अपना भी समझता है।'

Answered by prabin173
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bhagwan ham sabke vitr bse huae aak aesi sakti jiseke jaria hame takat milti Hain kisi vi kathinyo se jujne ki khymta.

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