भक्ति काल को हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग क्यों कहा जाता है
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हिन्दी साहित्य के चार कालों में केवल भक्तिकाल ही अपने सामाजिक, नैतिक साहित्यिक मान्यताओं के कारण स्वर्णकाल कहा जा सकता है। आदिकाल आश्रयदाताओं को प्रशस्ति गान है। वीरगाथाकाल निश्चयतः युद्ध के भयानक जाद, तलवारों की झनझनाहट तथा तीरों के सनसनाहट का युग है। इस काल का साहित्य केवल वीर तथा श्रृंगार रस तक सीमित है।
प्रेमचन्द्र जी ने अपनी रचनाओं के लिए हिन्दी - खड़ी बोली का उपयोग किया है । आपकी भाषा सरल, सहज,बोधगम्य एवं व्यवहारिक है । आपने अपनी रचनाओं में अवसरानुकूल उर्दू शब्दों का भी आकर्षक प्रयोग किया है । विषय,भाव,एवं पात्रानुरूप भाषा का प्रयोग आपकी भाषा की सबसे बड़ी विशेषता है। आपकी रचनाओं में मुहावरे तथा लोकोक्तियों की छटा सर्वत्र दिखाई पड़ती है।
शैली -
प्रेमचन्द जी की शैली हिन्दी और उर्दू भाषा की मिश्रित शैली है । आपकी रचनाओं में अनेक शैलियों का प्रयोग हुआ है । उनमें से कुछ शैलियों का विवरण निम्नांकित है -
1. विचारात्मक शैली - इस शैली का प्रयोग आपके निबंध 'कुछ विचार' में देखा जा सकता है ।
2. भावात्मक शैली - आपने कहानी एवं उपन्यास के पात्रों की भावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए इस शैली का बड़ी चतुराई के साथ उपयोग किया है ।
3. मनोवैज्ञानिक शैली - आपकी अधिकांश रचनाओं में इस शैली का उपयोग हुआ है । आपने अपनी कहानी( बूढ़ी काकी ) एवं उपन्यासों में पात्रों के मानसिक द्वन्द्व को इसी शैली के माध्यम से उभारा है ।
आपने इन शैलियों के अतिरिक्त विश्लेषणात्मक, अभिनयात्मक एवं व्यंगात्मक शैलियों का भी उपयोग किया है ।
साहित्य में स्थान -
हिन्दी साहित्य के उपन्यास सम्राट , युग प्रवर्तक कहानीकार प्रेमचन्द जी का नए कहानीकारों में विशिष्ट स्थान हैं । आप आधुनिक हिन्दी साहित्य जगत में कहानी -कला को अक्षुण्ण बनाए रखने वाले कहानीकारों में अग्रगणी हैं ।