भक्तिकाल के उद्भव और विकास को समझाते हुए प्रवीरतियाँ बताए
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भक्तिकाल का उद्भव और विकास....
हिंदी साहित्य का वर्गीकरण पाँच कालों में किया गया है, इसमें भक्ति काल द्वितीय काल है। भक्ति काल का समय 1375 ईस्वी से 1700 बीच का रहा है। भक्ति काल मुख्य रूप से प्रभु के प्रति भक्ति की भावना से प्रेरित रहा है। इस काल में ईश्वर के निर्गुण एवं सगुण रूप की महिमा का बखान करते हुए अनेक कवियों ने भक्ति रूपी रचना का अंबार लगा दिया था।
उस समय भारत में मुगलों का शासन था और भारतीय जनता मुगलों के अत्याचार से दुखी थी। समाज में अनेक कुरीतियां भी व्याप्त थीं। ऐसे में उस कवियो ने ईश्वर की भक्ति का सहारा लिया, ताकि त्रस्त जनता में कुछ चेतना जाग्रत कर सकें।
भक्ति काल में भक्ति धारा की दो रीतिया प्रचलित थीं, सगुण भक्ति धारा और निर्गुण भक्ति धारा।
सगुण भक्ति धारा के मुख्य कवि तुलसीदास, सूरदास, नंददास, कुंदन दास, केशवदास, कृष्णदास, मीरा, रसखान, रहीम आदि रहे हैं। जबकि निर्गुण भक्ति धारा के कवि कबीर, नानक, दादू दयाल, रैदास, मलूक दास आदि रहे हैं। भक्ति काल में भक्ति काल की आंदोलन की परंपरा में चैतन्य महाप्रभु, रामानुजाचार्य, संत कबीर, संत तुकाराम, संत रविदास जैसे अनेक कवि थे, जिन्होंने भक्ति आंदोलन को मुखरता प्रदान की।
भक्ति आंदोलन के सभी कवियों और कवि रूपी संतों ने उस समय समाज में व्याप्त बुराइयों पर कटाक्ष करने के लिए अपनी रचनाएं कीय़ भक्ति धारा के कवियों ने उस समय शैव संप्रदाय और वैष्णव संप्रदाय के बीच बढ़ते हुए राग द्वेष को खत्म किया। उन्होंने अनेक लोकहित वाली भक्ति रूपी रचनाएं जनता को भक्ति भावना से समृद्ध किया।