भक्ति में मूर्ति पूजा और तीर्थ यात्रा कहाँ तक सहायक है
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हिंदू धर्म में कब और कैसे शुरू हुआ मूर्ति पूजा विधान
भारत में वैसे तो मूर्तिपूजा का प्रचलन पूर्व आर्य काल (वैदिक काल) से ही रहा है। भगवान कृष्ण के काल में नाग, यक्ष, इन्द्र आदि की पूजा की जाती थी, और भगवान श्रीराम के काल में सूर्य व शिव की पूजा प्रमुख होती थी। हिन्दू सनातन धर्म पृथ्वी के सबसे प्राचीन धर्मों में से एक है; जिसके सबसे ज्यादा अनुयायी भारत के अलावा नेपाल और मॉरिशस में भी हैं। इसे संसार का प्राचीनतम धर्म कहा जाता है। इतिहास के पन्ने बताते है कि इसकी उत्पत्ति मनुष्य जीवन की उत्पत्ति से भी पहले की है। धर्म के जानकार लोग हिन्दू धर्म को भारत की विभिन्न संस्कृतियों एवं परम्पराओं का समुद्र मानते हैं । हमारे ऋषियों ने सबके लिए इतनी सरल व सीधी पूजा-पद्धति का आविष्कार कर उपासकों को ईश्वर प्राप्ति का सरल मार्ग सुझाया हैं।
कहीं कहीं उल्लेख मिलता है कि महाभारत काल तक अर्थात द्वापर युग के अंत तक देवी - देवता धरती पर ही रहते थे और वे भक्तों के समक्ष कभी भी प्रकट हो जाते थे, इसलिए शायद मूर्ति पूजा नहीं होती होगी। हिन्दू धर्म के धर्मग्रंथ वेद, उपनिषद और गीता में भी मूर्ति पूजा की कहीं उल्लेख नहीं मिलता ।
वेद शास्त्र की माने तो ईश्वर एक ही और उनके प्रतिरूप अनेक है, हिंदू धर्म में मुख्य रूप से पांच प्रमुख देवी देवताओं की पूजा करने का विधान बताया गया है।
पंच देव
1- सूर्य - सूर्य अर्थात सविता जिसे जीवन दाता, स्वास्थ्य, प्रतिष्ठा व सफलता का देवता माना जाता हैं।
2- विष्णु - विष्णु अर्थात नारायण जिसे पालन कर्ता, शांति व वैभव का देवता माना जाता हैं।
3- शिव - शिव कहते महाकाल को कल्याण से संहार भी करता हैं इसलिए ये ज्ञान व विद्या देवता माने जाते हैं।
4- शक्ति - शक्ति अर्थात दुर्गा जो संगठन, शक्ति व सुरक्षा की देवी मानी जाती हैं।
5- गणेश - गणेश जी को प्रथम पूजनीय, मंगलकारी विघ्नहर्ता, बुद्धि व विवेक का देवता माना जाता हैं।
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उनका मानना है कि पूजा और प्रार्थना में एक मूर्ति या एक भौतिक प्रतीक का उपयोग करना है, जिसका उद्देश्य ब्रह्म के एक निश्चित गुण (सगुण) के संबंध में ब्रह्मम (सार्वभौमिक या सर्वोच्च देवता) पर ध्यान केंद्रित करना है। ऐसी मूर्ति पूजा को भारत में "सगुण आराधना" (उपासना के रूप और नाम) कहा जाता है। ... तो यह सिर्फ एक मूर्ति बन जाता है।